मूल्य रहित पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3 श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3महर्षि वेदव्यास
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इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।।34।।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।।34।।
इन्द्रिय-इन्द्रिय के अर्थ में अर्थात् प्रत्येक इन्द्रिय
के विषय में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं। मनुष्य को उन दोनों के वश में
नहीं होना चाहिये, क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याणमार्ग में विघ्न करनेवाले
महान् शत्रु हैं।।34।।
इंद्रियों के लिए और इंद्रियों के अर्थों के लिए प्रकृति ने राग और द्वेष की व्यवस्था की है। प्रकृति ने मनुष्य को पाँच कर्मेन्द्रियाँ और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ दी हैं। इन सभी कर्मेन्द्रियों के विकास की प्रक्रिया में हमने नेत्रों से देखना सीखा, कानो से सुनना सीखा, नासिका से सूँघना सीखा, जिह्वा से स्वाद लेना सीखा और त्वचा से शीतोष्ण का अनुभव किया। यहाँ तक तो ये सभी अनुभव जीवन-यापन और जीवन रक्षा के लिए अनिवार्य थे। परंतु इसके बाद इन अनुभवों की स्मृतियाँ बननी आरंभ हुई। इन स्मृतियों के कारण हमें इन अनुभवों से राग और द्वेष होने लगे। जैसे-जैसे जीवन की विविधता बढ़ी इन राग-द्वेषों की संख्या और तीव्रता भी बढ़ने लगी।
मनुष्य के जीवन में शैशवकाल से ही रंगो-चित्रो, ध्वनियों, रूप, रंग आदि के अनुभव होने लगते है। स्वाभाविक है कि उसे कुछ अच्छे लगते हैं, और कुछ अच्छे नहीं लगते हैं। जीवन का प्रत्येक अनुभव अपनी छाप छोड़ता जाता है, कुछ राग के रूप में और कुछ द्वेष के रूप में। परंतु हम जिसे जीवन कहते हैं, वह तो इन अनुभवों से ही बना है, तो क्या हमें अनुभव नहीं करने चाहिए? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् कहते हैं कि अनुभव जो जीवन का स्वाभाविक अंग है, परंतु प्रत्येक अनुभव से हम क्या ग्रहण करते हैं, यह व्यक्ति पर निर्भर करत है। इसलिए भगवान् अनुभव न करने के कहने की अपेक्षा यह ध्यान दिलाते हैं कि हमें इन अनुभवों के वश में नहीं हो जाना चाहिए, वरन् प्रत्येक अनुभव को करते हुए भी हर परिस्थिति में अपना स्वामी स्वयं बनना चाहिए न कि अनुभवों से पराधीन हो जाना चाहिए। क्योंकि स्वतंत्र व्यक्ति ही सुखी हो सकता है, राग-द्वेष के वश में हुआ व्यक्ति तो उनका दास होने के कारण परतंत्र हो जाता है। इस प्रकार अपने कल्याण के मार्ग से विमुख हो जाता है।
इंद्रियों के लिए और इंद्रियों के अर्थों के लिए प्रकृति ने राग और द्वेष की व्यवस्था की है। प्रकृति ने मनुष्य को पाँच कर्मेन्द्रियाँ और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ दी हैं। इन सभी कर्मेन्द्रियों के विकास की प्रक्रिया में हमने नेत्रों से देखना सीखा, कानो से सुनना सीखा, नासिका से सूँघना सीखा, जिह्वा से स्वाद लेना सीखा और त्वचा से शीतोष्ण का अनुभव किया। यहाँ तक तो ये सभी अनुभव जीवन-यापन और जीवन रक्षा के लिए अनिवार्य थे। परंतु इसके बाद इन अनुभवों की स्मृतियाँ बननी आरंभ हुई। इन स्मृतियों के कारण हमें इन अनुभवों से राग और द्वेष होने लगे। जैसे-जैसे जीवन की विविधता बढ़ी इन राग-द्वेषों की संख्या और तीव्रता भी बढ़ने लगी।
मनुष्य के जीवन में शैशवकाल से ही रंगो-चित्रो, ध्वनियों, रूप, रंग आदि के अनुभव होने लगते है। स्वाभाविक है कि उसे कुछ अच्छे लगते हैं, और कुछ अच्छे नहीं लगते हैं। जीवन का प्रत्येक अनुभव अपनी छाप छोड़ता जाता है, कुछ राग के रूप में और कुछ द्वेष के रूप में। परंतु हम जिसे जीवन कहते हैं, वह तो इन अनुभवों से ही बना है, तो क्या हमें अनुभव नहीं करने चाहिए? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् कहते हैं कि अनुभव जो जीवन का स्वाभाविक अंग है, परंतु प्रत्येक अनुभव से हम क्या ग्रहण करते हैं, यह व्यक्ति पर निर्भर करत है। इसलिए भगवान् अनुभव न करने के कहने की अपेक्षा यह ध्यान दिलाते हैं कि हमें इन अनुभवों के वश में नहीं हो जाना चाहिए, वरन् प्रत्येक अनुभव को करते हुए भी हर परिस्थिति में अपना स्वामी स्वयं बनना चाहिए न कि अनुभवों से पराधीन हो जाना चाहिए। क्योंकि स्वतंत्र व्यक्ति ही सुखी हो सकता है, राग-द्वेष के वश में हुआ व्यक्ति तो उनका दास होने के कारण परतंत्र हो जाता है। इस प्रकार अपने कल्याण के मार्ग से विमुख हो जाता है।
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