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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3

महर्षि वेदव्यास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :62
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 67
आईएसबीएन :00000000

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नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः।।8।।


तू शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म कर; क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा।।8।।

हर व्यक्ति का जीवन किन्हीं विशेष शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक गुणों के साथ आरम्भ होता है और वह जीवन पर्यन्त अपनी रुचियों, शारीरिक और मानसिक शक्तियों के अनुसार कर्म करता है। भगवान् कहते हैं कि व्यक्ति को उसके लिए नियत कर्मों को करना चाहिए, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा, कर्म करना अधिक श्रेष्ठ है। प्रकृति की ऊर्जा इस जगत् में विभिन्न शरीरों में अभिव्यक्त होती है। इस प्रकार इन शरीरों का निर्वाह ही कर्म करने के लिए हुआ है। शास्त्रों के अनुसार लोगों को अपनी शारीरिक, बौद्धिक योग्यताओं और सामाजिक आवश्यकताओँ के निर्वाह के लिए आवश्यक और उपयुक्त कर्म करने चाहिए। शरीर शब्द का एक अर्थ होता है, वह निकाय जो कि सुगमता से नष्ट अथवा क्षीण हो सकता है। चूँकि शरीर आसानी क्षीण होता है, इसलिए इसके निर्वाह अर्थात् इसे चलाये रखने के लिए विशेष प्रयास की आवश्यकता होती है। ये स्वाभाविक प्रयास ही कर्म हैं। इसलिए यदि कर्म नहीं होंगे तो शरीर नहीं चल सकेगा। शरीर और कर्म की उपर्युक्त परिभाषा तो साधारण व्यक्तियों के लिए है। परंतु, अर्जुन जैसे योद्धा जिन्होंने वर्षो की शारीरिक साधना करके अपने आपको सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाया है उनकी इस शारीरिक तपस्या को समुचित फल तो युद्धक्षेत्र ही है।

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