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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3

महर्षि वेदव्यास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :62
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 67
आईएसबीएन :00000000

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यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धन:।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंग: समाचर।।9।।


यज्ञ के निमित्त किये जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मनुष्य समुदाय कर्मों से बँधता है। इसलिये हे अर्जुन! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभांति कर्तव्यकर्म कर।।9।।

साधारणतः हम किसी वेदी में जलते हुए अग्निकुण्ड पर होम करने की क्रिया को यज्ञ के नाम से जानते हैं। परंतु अपने सम्पूर्ण अर्थ में हम इसे यों समझ सकते हैं कि जब एक व्यक्ति अपना ध्यान अन्य सर्वस्य से त्याग कर किसी एक कार्य पर ही केंद्रित कर देता है तो इस क्रिया को यज्ञ कहते हैं। समाज के संदर्भ में देखें तो यज्ञ एक अथवा किसी समूह के लोगों द्वारा समस्त समाज की शुभेच्छा से किया गया कर्म यज्ञ कहलाता है। अतएव भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि यज्ञ के लिए किये गये कर्मों को यदि छोड़ दिया जाये तो अन्य सभी कर्म मनुष्य अपने स्वहित के लिए करता है। इस स्वहित की इच्छा के कारण उसमें इन कर्मों के प्रति आसक्ति उत्पन्न हो जाती है। उदाहरण के लिए एक सैनिक जब युद्ध में आक्रमणकारी सैनिकों की हत्या करता है, तब न तो उसे इसका कोई अपयश मिलता है और न ही उसे “इस कार्य में कोई पाप किया है”, ऐसी अनुभूति होती है। इसके विपरीत यदि कोई लुटेरा धन् की इच्छा से किसी अन्य व्यक्ति की हत्या करता है तो पापी कहलाता है। इसलिए भगवान अर्जुन से कहते हैं कि तुम यज्ञ भावना से बिना किसी आसक्ति के सधी हुई बुद्धि से कर्म करो।

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