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उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
अब वह पुनः अपने विषय में विचार करने लगी। इस समय कोई कमरे का द्वार खोलता प्रतीत हुआ।
वह लपक कर उठी और कमरे के बीचों बीच खड़ी हो गई। उसने मन में निश्चय कर लिया था कि द्वार खुलते ही वह भाग कर बाहर निकल जाएगी। अतः द्वार खुलते ही कमरे के बाहर को भागी, परन्तु द्वार तक पहुंचने से पूर्व ही वह किसी पुरुष की भुजा पाश में पकड़ ली गई। वह छूटने के लिए छटपटाने लगी परन्तु उसे पकड़ने वाला कसकर उसे छाती से लगाये हुए था।
जब नज़ीर ने देखा कि वह भाग नहीं सकती तो उसने छटपटाना बन्द कर दिया। वह पुरुष अभी भी उसे छाती से लगाये हुए था। अब नज़ीर ने उस व्यक्ति की ओर देख पूछा, ‘‘तुम कौन हो?’’
‘‘आराम से बैठो तो बताऊंगा। इस प्रकार कुश्ती करते हुए तो बता नहीं सकता। मैं बताने के लिए ही तो आया हूं।
‘‘देखो नज़ीर! तुम यहां से भाग नहीं सकतीं। कमरे का दरवाज़ा बाहर से बन्द है और फिर मैं हूं जो तुम जैसी तीन-चार को पकड़ कर रख सकता हूं।’’
‘‘छोड़ो मुझे! मैं देख रही हूं कि मैं भाग नहीं सकती।’’
उस व्यक्ति ने नज़ीर को छोड़ उसे एक कुर्सी पर बैठ जाने को कहा। वह स्वयं एक सेट्टी पर बैठ गया। विवश नज़ीर भी कुर्सी पर बैठ गई।
उसने कहा, ‘‘मैं एक धनी बाप का बेटा हूं। सब प्रकार के सुख-साधन मेरे पास हैं। मैंने तुम्हें, कुछ दिन हुए, एक बुक स्टाल पर देखा था और तभी से मैं तुमसे भेट करने की योजना बनाने लगा था।’’
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