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उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘‘ठीक-ठीक तो मुझे ज्ञात नहीं, परन्तु हमने तीस के लगभग चौकियां इस क्षेत्र में बनायी हैं। प्रति चौकी साठ-सत्तर से अधिक लोग नहीं है। इसका अभिप्राय यह होता है कि अभी तक डेढ़-दो हजार तो चौकियों पर हैं और दो-तीन स्थान पर हैड क्वार्टर हैं। वहां दो-दो सौ के लगभग जवान हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर तीन सहस्त्र से अधिक नहीं, परन्तु ये दो सहस्त्र डेढ़-दो से अधिक नहीं कहे जा सकते। यह इस कारण कि चौकियों से एक-दूसरे के पास सुगमता से पहुंचने के साधन नहीं। अर्थात् यदि किसी एक स्थान पर किसी का झगड़ा हो तो दूसरी चौकियों वाले वहां सहायता के लिए नहीं पहुँच सकते।’’
तेजकृष्ण को स्थिति की भयंकरता का ज्ञान होने लगा। उसे कुलदीप का यह कहना कि उनके अधिकारियों ने पाठ जैड-वाई-ऐक्स से पढ़ाना आरम्भ किया है, समझ में आने लगा था।
दिरांग में रात भर रहे और तेजकृष्ण को वहां सी० ओ० से बातों-बातों में ही पता चला कि दिरांग से सीमा तक सड़कों के लिए अभी ‘सर्वे’ ही हुई है। तेज वहां के लेफ्टिनेन्ट कर्नल सिन्धु से यह जानकर चकित रह गया कि इन सड़कों की ‘सर्वें’ सन् १९६० में आरम्भ की गयी है दिरांग से आगे कुछ एक चौकियों तक एक टन बोझा उठाने की तैयार सड़क हो सकी थी।
दिरांग से आगे तोवांग तक पहुंचने में एक दिन और लगा। उसके उपरांत तो पैदल सड़क ही थी। सेला-पास मार्ग में ही पड़ता था। वह सोलह हजार फुट की ऊंचाई पर था। वहां की चौकी वालों की अवस्था असह्य थी। वहां जवानों के पास सोने के बिस्तर और दिन के पहनने के वस्त्र अपर्याप्त थे।
तोवांग से आगे तो पैदल ही मार्ग था। डाक और खाने-पीने का सामान खच्चरों पर जाता था। इस खच्चर हांकने वालों की अवस्था भी दयनीय थी।
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