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उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘‘तो यहां से नौकरी छोड़ दोगी?’’
‘‘यहां की नौकरी मैंने प्रबन्ध लिखते समय धनाभाव के कारण स्वीकार की थी। प्रबन्ध लिखा जा चुका है। इस कारण अब मुझे यहां पड़ा रहने में कोई कारण प्रतीत नहीं हो रहा। साथ ही मैं अपनी योग्यता का लाभ भारत को पहुंचाना चाहती हूं।’’
‘‘यह ठीक ही है!’’ यशोदा ने कहा और तेज के कमरे में जा उसकी टाइप की मशीन उठा लायी।
मैत्रेयी ड्राइंग-रूम के एक कोने में ही बैठ अपने पत्र टाइप करने लगी। उसने छः पत्र लिखे और उनको डाक में डालने के लिए घर से निकल गई। पत्र डाक में डाल वह लौटी तो तेजकृष्ण भोजन लेने आया था। जब मैत्रेयी ड्राइंग रूम में उसके सामने पहुंची तो तेज ने पूछ लिया, ‘‘तो मैत्रेयी जी भारत में काम पाने की इच्छा करने लगी हैं?’’
‘‘हां, भैया!’’ मैत्रेयी पिछले दिन से ही तेजकृष्ण को भैया कह कर सम्बोधन कर रही थी और तेजकृष्ण को यह अस्वाभाविक प्रतीत नहीं हो रहा था। उसने इस ओर ध्यान न देते हुए कहा, ‘‘इसमें मैं मैत्रेयी जी की सहायता कर सकता हूं।’’
‘‘कैसे सहायता करेंगे?’’
‘‘वहाँ मेरे कुछ परिचित लोग हैं जो शिक्षा विभाग से सम्बन्ध रखते हैं। मैं उनके द्वारा यत्न कर सकता हूँ।’’
‘‘तो भैया! यह कर दो। मैं वहां अपने को अनुकूल वातावरण में अनुभव करूंगी।’’
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