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उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘‘ठीक है! मेरे विचार में तुम अभी भी अपहरित ही हो।’’
तेजकृष्ण ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘मैं इसमें भी एक प्रकार का आनन्द अनुभव करता हूं।’’
मैत्रेयी ने भी तेजकृष्ण के कथन को सुना था। यद्यपि उसने मुख पर तेजकृष्ण की बात सुन किसी प्रकार का हर्ष अथवा शोक प्रकट नहीं किया। वह अपने मन में तुष्टि अनुभव करने लगी थी। जिस कारण से वह इनके घर आने में संकोच कर रही थी, उसकी सम्भावना नहीं रही थी। वह इससे प्रसन्न थी।
सब भीतर गये तो जाते ही ब्रेकफास्ट के लिए डायनिंग हाल में चले गए। अल्पाहार लेने के उपरान्त तेजकृष्ण अपने समाचार-पत्र के कार्यालय में चला गया। करोड़ीमल अपने व्यवसाय के कार्यालय में चला गया। घर में मैत्रेयी और यशोदा रह गयीं। मैत्रेयी को घर में पृथक् कमरा मिल गया। वह वहाँ गई तो अपने विषय में विचार करने लगी। वह मन में विचार कर रही थी कि उसने विश्वविद्यालय की सेवा इस कारण स्वीकार की थी कि इस देश में शोध-प्रबन्ध पूर्ण करने तक निर्वाह हो सके। पीछे उसने यहाँ रहने का विचार प्रोफ़ेसर से विवाह के कारण बनाया था। अब ये दोनों कारण नहीं रहे थे। इस कारण वह विचार करने लगी कि यदि भारत में कुछ काम मिल जाए तो वहां चल दे।
उसने तुरन्त ही अपने ब्रीफ़-केस में से अपने लैटर-फ़ार्म निकाले और दो तीन विश्वविद्यालयों को पत्र टाइप करने के लिए यशोदा से टाइप-राइटर के विषय में पूछने जा पहुंची। उसने पूछा, ‘‘माताजी! घर पर कोई टाइप करने की मशीन है अथवा नहीं?’’
‘‘है तो! तेजकृष्ण की अपनी मशीन है।’’
‘‘तो उनके कमरे से निकाल दीजिए।’’
‘‘तो कहीं पत्र लिख रही हो?’’
‘‘मैं भारत में किसी विश्वविद्यालय में नौकरी की टोह लेना चाहती हूं।’’
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