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उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
मैत्रेयी के मुख पर घबराहट और भय अंकित था। उसके होंठ फड़के, परन्तु वह उत्तर नहीं दे सकी।
यशोदा ने कहा, ‘‘मुझे कुछ ऐसा अनुभव हो रहा है कि तेज किसी छाग के गले में रस्ता बांधे देवी के सम्मुख बलि चढ़ाने ले जा रहा है।’’
तेज इस अलंकार का अर्थ नहीं समझा। परन्तु मैत्रेयी समझ गई और गला साफ़ कर बोली, ‘‘माताजी! यह बात नहीं। वह बलि तो स्वेच्छा से अपना मुण्ड आगे कर बलि होने के लिए चली आई है। इसमें इनका दोष प्रतीत नहीं होता।’’
‘‘हां, तो क्या कहते हो तेज?’’
‘‘हमें आशीर्वाद दो कि हम अपना विवाह एक-दो दिन में कर सकें। मैं पुनः वैसा न करने का वचन देता हूं जैसा पिछले वर्ष दिल्ली से आते हुए किया था।’’
‘‘और तुम क्या कहती हो?’’ यशोदा ने मैत्रेयी से पूछ लिया।
‘‘माताजी! बताया तो है। मैं समझती हूं कि यदि विवाह करना ही है तो फिर आपके सुपुत्र से करना ही अच्छा रहेगा।’’
‘‘और कब करना चाहती हो?’’
‘‘शीघ्रातिशीघ्र जिससे फिर कोई बिल्ली मार्ग न काट जाए।’’
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