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उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘कर दो! और बता देना कि पत्र भेजा था, परन्तु वापस आ गया है।’’
उमाशंकर उठा और क्लीनिक में जाकर नम्बर घुमाने लगा। दूसरी ओर से प्रज्ञा बोली। इस पर उमाशंकर ने उस दिन के समारोह की बात बताकर कह दिया कि एक निमन्त्रण-पत्र आप सबके लिए भी था, परन्तु आपमें से कोई भी नहीं आया।
‘‘हमें निमन्त्रण-पत्र नहीं मिला। किस पते पर भेजा था?’’ प्रज्ञा ने पूछा।
‘‘मुहम्मद यासीन और ‘खोजा लौज़’ के पते पर।’
प्रज्ञा हँस पड़ी और बोली, ‘‘दादा! नगीना ने आपको बताया तो था कि यहाँ सबने अपने नाम बदल लिए हैं। यहाँ तक कि कोठी के बाहर नामपट्ट पर भी नाम बदल दिया है। कोठी का नाम भी हमने ‘अरुणांचल’ लिख दिया है।’’
‘‘ओह!’’ उमाशंकर ने कहा, ‘‘शायद इसीलिए पत्र लौट आया है।’’
‘‘दादा! आप तो जानते हैं कि यहाँ नामों में परिवर्तन हो चुका है?’’
‘‘मुझे यह पता नहीं था कि तुम लोग इस सीमा तक जा चुके हो। अच्छा, एक बात करो। शीघ्र परिवार सहित यहाँ चली आओ। यहाँ हमने हवन-यज्ञ किया है और लगभग पाँच सौ व्यक्तियों को मिठाई बाँटी है।’’
‘‘मगर आपके जीजाजी तो दुकान पर चले गये हैं।’’
‘‘मैं उनको दुकान पर टेलीफोन कर देता हूं कि आप सब लोग यहाँ पर आये हुए हैं और आप उनकी यहाँ पर रात के खाने तक इन्तजार करेंगे। सबका भोजन यहीं होगा।’’
‘‘तो ठीक है, कर दो। मैं आ रही हूं।’’
उमाशंकर ने कनाट प्लेस ज्ञानस्वरूप को भी फोन कर निमंत्रण दे दिया और फिर ड्राइंगरूम में चला आया। उसके यहां पहुँचते ही पिता ने पूछा, ‘‘तो हुआ टेलीफोन?’’
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