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उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘मुझे पता है, न तो दादा जायेंगे और न भाभी?’’
‘‘ओह! तुम उनकी मुहाफिज़ बन रही हो यहाँ?’’
‘‘मुहाफिज़ नहीं अब्बाजान! मैं उनके मन की बात जानती हूँ और कहती हूँ कि वह बम्बई जैसे दोजख में नहीं जायेंगे।’’
‘‘मगर हमारा मकान तो बहुत खुली हवा में है।’’
‘‘खुली और हवा के वह मायने यहाँ नहीं समझे जाते तो बम्बई में समझे जाते हैं।’’
‘‘यहाँ क्या समझा जाता है और वहाँ क्या समझा जाता है?’’ अब्दुल हमीद ने पूछ लिया।
‘‘अब्बाजान! हवा का मतलब यहाँ ‘ऐयर’ से नहीं लिया जाता। उससे यहाँ ख्यालात का माहौल समझा जाता है। बस, उसी में यहाँ और वहाँ में फरक है। भाईजान यहाँ के माहौल को बेहतर समझते हैं।’’
‘‘तब तो पहले उसको समझाना पड़ेगा?’’
‘‘देखिये हजरत!’’ सालिहा ने अपने खाविन्द को कह दिया, ‘‘आप अपने साहिबजादे को समझाइये या न समझाइये। मेरा इससे कोई भी ताल्लुक नहीं। यह मेरी लड़की है। मैं इसे अपने पास रखना चाहती हूँ।’’
प्रज्ञा ने वार्तालाप में हस्तक्षेप करते हुए कहा, ‘‘इसके भाईजान को आने दीजिए। बात उनसे ही करियेगा। आपके हक-हकूक के ऊपर भी कुछ बंदिश है। वह लाइंतहा नहीं है?’’
इस चुनौती को सुन अब्दुल हमीद क्रोध से उबल पड़ा। उसने कहा, ‘‘तुम जैसी बदतमीज औरत से मैं अपने लड़के की शादी मंजूर नहीं करता।’’
‘‘और आपने मंजीर कब की है? आज तक श्वसुर की तरफ से मुझे एक पैसे की भी रवादार नहीं हुई है।’’
कमला उठी और टेलीफोन के पास रखी चौकी के पास जा टेलीफोन डायरेक्टरी देखने लगी।
‘‘क्या देख रही हो?’’ नगीना की माँ ने पूछ लिया।
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