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उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘अम्मी! पुलिस स्टेशन का नम्बर देख रही हूँ।’’
‘‘किसलिए?’’
‘‘अब्बाजान को फौजदारी से रोकने के लिए। मगर अभी टेलीफोन नहीं कर रही। अभी तो सिर्फ नम्बर देख रही थी।’’
प्रज्ञा की हँसी निकल गई। उसने हँसते हुए कहा, ‘‘अब्बाजान! इस लड़की की तेज रफ्तार से चलने वाली अक्ल की वजह से ही मैं इसे मुहब्बत करने लगी हूँ।’’
‘‘मैंने इसके लिए बम्बई में एक रिश्ता देखा है।’’
‘‘मैं इसमें दखल नहीं दूँगी। मगर बारात यहाँ दिल्ली में आएगी और शादी इसके भाईजान करेंगे।’’
‘‘तो बहुत रुपये पैदा कर लिए हैं उसने?’’
‘‘क्या पैसे वालों की लड़कियों की ही शादी होती है?’’
‘‘हाँ! अगर दामाद किसी अमीर खानदान का हो तो?’’
‘‘पर अब्बाजान! वह अमीर कहने का ही तो हो सकता है, जो अपने श्वसुर से बहुत बड़ी दहेज की उम्मीद रखता हो?’’
‘‘तुम कंगालों की बेटी क्या जानो!’’
प्रज्ञा हँसी तो कमला भी हँस पड़ी। कमला ने कह दिया, ‘‘भाभी! कंगलों के घर की मिठाई अब्बाजान को खिला दो।’’
‘‘तो ले आओ।’’ प्रज्ञा ने कहा।
अभी तक तो वे कॉफी पी रहे थे। अब सब के सामने प्लेटों में बिस्कुटों के साथ कमला ने बर्फी की एक-एक टुकड़ी रख दी है।’’
‘‘अब्बाजान! यह मेरे डिब्बे की है।’’
‘‘तो तुम प्रज्ञा के पिता के घर से आई हो?’’
इस पर प्रज्ञा और सरस्वती भी हँसने लगीं। अब्दुल हमीद ने पूछ लिया, ‘‘इसमें हँसने की कौन-सी बात है?’’
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