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उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
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पण्डित रविशंकर दिन-प्रतिदिन अधिक और अधिक अस्थिर स्वभाव के होते जाते थे। महादेवी यह तो जानती थी कि यह वृद्धावस्था के कारण है, परन्तु उनको कोई रोकने वाला घर पर न होने के कारण वह कुछ अनिष्ट भी कर सकते हैं, ऐसी आशंका उसके मन में बढ़ रही थी।
उमाशंकर अपने छोटे भाई शिवशंकर की यह बात सुन कि पिताजी ने उसे कहा है वह नाराज हो चले जा रहे हैं, समझ रहा था कि क्रोध शान्त हो रहा है। जिस व्यक्ति को यह समझ आ गया हो कि वह नाराज है तो इसका अर्थ यह होता है कि उसकी नाराजगी कम हो रही है और वह अपनी मानसिक स्थिति को समझने लगा है। क्रोध में तो उन्माद का अंश रहता है।
इस कारण रविशंकर ने कहा, ‘‘माताजी! दस मिनट तक यहीं ड्राइंगरूम में ही बैठते हैं। तब तक पिताजी लौट आयेंगे और भोजन उनके आने पर ही करेंगे।’’
इसके उपरान्त उमाशंकर ने बात बदल दी। उसने शिव की पढ़ाई की बात प्रारम्भ करते हुए पूछा, ‘‘अब आगे क्या करने का विचार है?’’
‘‘दादा!’’ शिव ने कह दिया, ‘‘कालेज के प्राध्यापकों का ज्ञान बहुत ही सीमित होता है, और साथ ही उनकी अपनी मनोवृत्ति से रंगा हुआ होता है।
‘‘इस पर भी मैं एम. ए. में प्रवेश लूँगा। यद्यपि दो वर्ष तक कालेज की चक्की नहीं पीस पाऊँगा। उससे पहले ही मैं जीवन-कार्य आरम्भ कर दूँगा।’’
‘‘और वह, मेरा मतलब है कि जीवन-कार्य निश्चय कर लिया है?’’
‘‘हाँ, दादा! परन्तु उस पर विचार-विनिमय अभी नहीं किया।’’
उमाशंकर प्रसन्न था, परन्तु इस समय तो वह पिता की प्रतीक्षा के काल को सामान्य करने के यत्न में लगा था।
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