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उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘देखिये, हिन्दुओं में पार उतारने वाले गुरु तो अनेक हैं, मगर वे इसके लिए लड़ते नहीं। मुसलमान क्यों लड़ते हैं? यह मैं उनके विचारों में दोष मानती हूँ। सुना है पाकिस्तान में कुछ वर्ष हुए लाखों अहमदियों को मार डाला गया था। सिर्फ इसलिए कि वे अपनी पीर मुरशिद को पैगम्बर मानते हैं। वे कुरान को मानते हैं, मगर उसका अनुवाद वे दूसरी तरह करते हैं।’’
‘‘मगर ऐसा हिन्दुओं में नहीं है। मैं आपको बताती हूँ। हमारे एक बहुत विद्वान् स्वामी शंकराचार्य हुए हैं। वह मानते हैं कि इस संसार में परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं। जो हम भिन्न-भिन्न भेदभाव दिखाई देता है, वह हमारे अज्ञान के कारण है।’’
‘‘इसके अतिरिक्त एक अन्य विद्वान् रामानुजाचार्य हुए हैं। वे मानते हैं कि प्रकृति और जीवात्मा भी परमात्मा की भाँति सदा रहने वाले तत्त्व हैं। परन्तु किसी भी शंकर के अनुयायी ने आज तक रामानुज के किसी अनुयायी की हत्या नहीं की।’’
‘‘इसी प्रकार राम-भक्त और कृष्ण-भक्त हैं। शिव को मानने वाले और दुर्गा भवानी को मानने वाले भी हैं। परन्तु ये हिन्दू एक दूसरे की हत्या नहीं करते।’’
‘‘इसका अर्थ मैं यह समझती हूँ कि झगड़ा परमात्मा को मानने न मानने का नहीं, झगड़ा है रसूल को मानने का।
‘‘रसूल के मानने से सरकारें पृथक् रह सकती हैं। मगर परमात्मा, जो एक वैज्ञानिक तथ्य है, उससे पृथक् होकर सरकार अपनी मूर्खता ही प्रकट करती है।’’
सरस्वती यह जानती थी कि प्रज्ञा बात युक्ति-युक्त करती है। उसका जवाब नहीं दिया जा सकता।
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