|
उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
|
391 पाठक हैं |
|||||||
खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘मैं आपको बताता हूँ। इसलिए कि आप मुझे अपना पुत्र समझते हैं और पुत्र का-सा प्रेम करते हैं, मेरे साथ वैसा नाटक नहीं खेलते जैसा प्रज्ञा के साथ खेला है।’’
‘‘और यदि आप प्रज्ञा के साथ भी वैसा ही व्यवहार करते होते जैसा मुझसे तथा माताजी से कर रहे हैं तो वह भी आपसे पूछ कर विवाह करती।’’
‘‘तो विवाह के पहले मैंने कभी उसके साथ द्वेष का व्यवहार किया है?’’
‘‘जरूर किया होगा। यह तो अब पूछने से पता चलेगा कि उसके मन में क्या था। आप पूछते तो मैं समझता हूँ कि वह बता देती।’’
‘‘अच्छा, ऐसा करो कि उससे पूछ कर बताओ। यदि कोई ऐसी बात हुई है। जिसका अर्थ यह निकलता है कि मैं उससे स्नेह नहीं रखता तो फिर मैं उसको बदल दूँगा।’’
‘‘तो मैं जाऊँ और उससे बात करूँ?’’
‘‘तुम जाओगे तो फिर उस बुलबुल का चहकना सुनने लगोगे।’’
‘‘पिताजी! मैं उसे मना कैसे कर सकता हूँ कि वह अपनी बोली न बोले। यह तो वह स्वभाव से ही बोलती है। मुख्य बात यह है कि मैं उसकी बोली सुनकर अपनी विचार शक्ति खो नहीं रहा। इसकी आप प्रशंसा क्यों नहीं करते?’’
‘‘मगर आज मत जाओ।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘वह नाराज होगी तो मुझे जली-कटी सुना सकती है?’’
‘‘यह वह एक पिता-भक्त पुत्र के सामने नहीं सुना सकेगी।’’
इस प्रकार निरुत्तर हो रविशंकर चुप हो गया।
उमाशंकर पिता की दुर्बलता समझ रहा था। वह युक्ति करना नहीं जानते थे। जब युक्ति की जाए तो यह उठ भाग खड़े होते थे और इस प्रकार घर छोड़ जाने की धमकी देते थे।
आज उसने बलपूर्वक पिता को पकड़कर बैठा रखा था और उनको निरुत्तर कर मना लिया था कि वह प्रज्ञा के घर जा सकता है।
अतः सायं ठीक आठ बजे वह कनाट प्लेस में ज्ञानस्वरूप की दुकान पर जा पहुँचा।
|
|||||

i 









