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उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
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ज्ञानस्वरूप सब कैश गिन सेफ में रखकर और हिसाब-किताब की पुस्तकों को उठवा दुकान से निकलने लगा था कि उमाशंकर उसके सामने जा खड़ा हुआ।
‘‘जीजाजी! घर जा रहे हैं?’’ उमाशंकर ने पूछा।
‘‘हाँ! पिताजी की बात सुनाइये। वे कब घर लौटे थे?’’
‘‘प्रज्ञा के जाने के पाँच मिनट के भीतर ही वह आ गये थे। मैं आपके साथ ही ग्रेटर कैलाश की ओर जा रहा हूँ। ले चलेंगे?’’
‘‘यह तो मेरा सौभाग्य होगा कि मुझे आपकी यह सेवा करने का अवसर मिलेगा।’’
‘‘तो चलिये।’’
दोनों ज्ञानस्वरूप की मोटर गाड़ी में बैठ गये। गाड़ी ज्ञानस्वरूप चला रहा था। उमाशंकर उसके पास अगली सीट पर बैठा था। गाड़ी स्टार्ट होते ही उमाशंकर ने कहा, ‘‘मैं आपके घर चल रहा हूँ।’’
‘‘सत्य? अपने पिताजी से पूछकर चल रहे हैं अथवा चोरी-चोरी?’’
‘‘उनके आदेश से ही जा रहा हूँ।’’
‘‘यह तो आप बहुत मजेदार बात बता रहे हैं।’’
‘‘पिताजी की एक बात प्रज्ञा से पूछनी है। इसीलिए आपके घर जाने की स्वीकृति मिली है।’’
‘‘दादा! मैं तो दोनों घरों को एक ही समझता हूँ। सिर्फ हमने फैसला किया है कि सोना, खाना, अलहदा-अलहदा हो। मगर आपके पिताजी इसको मानने में ही नहीं आते।’’
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