|
उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
|
391 पाठक हैं |
|||||||
खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘परन्तु मैं बचपना के कारण यही समझ रही थी कि आप मुझे अभी बच्ची समझ डाँट-डपट देंगी। इससे आपकी डाँट-डपट के भय से बता नहीं सकी कि मैं जा रही हूँ और कहाँ जा रही हूँ।
‘‘परन्तु अब मैं समझती हूँ कि यदि ठीक ढंग से अपनी बात बताती तो आपसे अवश्य आशीर्वाद प्राप्त कर लेती।’’
बात महादेवी को कही गयी थी, परन्तु उत्तर रविशंकर ने दिया, ‘‘हाँ! तुम्हारे व्यवहार ने मन में चंचलता उत्पन्न तो की थी। मैं समझता हूँ कि आज तुम्हारे और ज्ञानस्वरूप के व्यवहार ने उस चंचलता को बहुत सीमा तक शान्त कर दिया है।’’
बातों का सूत्र महादेवी ने अपने हाथ में लेते हुए कहा, ‘‘मैं समझती हूँ कि आगामी रविवार को मध्याह्न के भोजन के समय आप आइएगा तो उमा के भविष्य पर विचार करेंगे।’’
ज्ञानस्वरूप प्रज्ञा, सरस्वती और कमला को लेकर अरुणाचल लॉज पर पहुँचा। उमाशंकर उनके साथ कोठी तक आया था। वहाँ पहुँचते-पहुँचते उस दिन की पूर्ण घटना पर विचार होने लगा। प्रज्ञा ने घटना का विश्लेषण करते हुए कहा, ‘‘अब्बाजान भी अपने को दीनदार कहते हैं और हमारे पिताजी भी प्रति मंगल को हनुमानजी पर लड्डू चढ़ाने जा पहुँचते हैं। अब्बाजान का दीन कहता है कि हज करने तक ही खुदा है और पिताजी की ईश्वर-भक्ति हनुमानजी के मन्दिर तक ही है। मेरे कहने का अभिप्राय यह है कि दोनों एक ही श्रेणी के महापुरुष हैं।
‘‘मैं जिस प्रकार के परमात्मा का विचार रखती हूँ और आपके मानस पटल पर अंकित कर रही हूँ, वह इन वाला ईश्वर नहीं है। बस, मतभेद का मूल इसी में है।’’
‘‘यदि ये और इनके भाई-बन्धु परमात्मा को मानते हों तो हम परमात्मा को न मानने वालों में हैं और यदि हम परमात्मा को मानते हैं तो ये दोनों महानुभाव और इनके साथ कोटि-कोटि मानव नास्तिक हैं।’’
‘‘बहू!’’ सरस्वती ने कहा, ‘‘कौन ठीक है? ये अथवा तुम?’’
|
|||||

i 









