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उपन्यास >> नास्तिक

नास्तिक

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :433
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7596
आईएसबीएन :9781613011027

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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...


‘‘परन्तु मैं तो तुम्हें माता-पिता के घर ले जा रहा हूँ। वहाँ पिताजी प्रमुख व्यक्ति हैं। इसीलिए माताजी ने मुझे तुम्हें सचेत करने के लिए कहा है।’’

‘‘यह तो ठीक है। माता-पिता के बिना घर की मैं कल्पना नहीं कर सकती और पिताजी के मस्तिष्क की खुजली अवश्य ही विचारणीय है।’’

‘‘हाँ! तो अब तैयार हो जाओ। देखो, तुम भी अपनी सबसे बढ़िया पोशाक पहन लो जिससे माताजी तथा पिताजी की खुजली पर मरहम लग सके।’’

कमला हँस पड़ी और उठकर अपने कमरे को भागी।

सब को तैयार होने में दस मिनट लगे। कमला सब से अन्त में अपने कमरे से निकली। वह श्वेत खद्दर की सलवार, कुर्ता और ओढ़नी ओढ़े हुए थी। इस श्वेत परिधान में कमला का मूल्यांकन उमाशंकर कर रहा था। अभी तक उसने उसे केवल रँग-बिरँगे रेशमी वस्त्रों में ही देखा था। वह कमला को इस सरल पहिरावे में देख सन्तोष अनुभव करने लगा, परन्तु प्रज्ञा ने विस्मय प्रकट करते हुए पूछ लिया, ‘‘यह तो तुमने स्लीपिंग सूट बनवाया था?’’

‘‘भाभी! यह वहाँ पिताजी के मस्तिष्क में खुजली को शान्त करने के लिए पहन लिया है।’’

उमाशंकर हँस पड़ा। प्रज्ञा इसका अर्थ नहीं समझी। बात आगे नहीं चल सकी। ज्ञानस्वरूप ने कह दिया, ‘‘साढ़े नौ बज रहे हैं। मैं समझता हूँ, चलना चाहिए। वहाँ हमारी प्रतीक्षा हो रही होगी।’’

कमला की पोशाक की चर्चा बन्द हुई और सब बाहर निकल आये।

महादेवी का अनुमान ठीक था कि यह कमला का चुलबुला स्वभाव ही था जो उमा के पिता को उत्तेजित करता रहता था। उस रात के खाने में कोई अनिच्छित घटना नहीं हुई और भोजन के समय देश की राजनीति पर चर्चा होती रही। भोजन समाप्त कर जब सब ड्राइंगरूम में आये तो प्रज्ञा ने कह दिया, ‘‘माताजी! यदि मुझे आज के इस सुखद् स्वागत का ज्ञान होता तो मैं इस घर से विदा होने के पूर्व आपका और पिताजी का आशीर्वाद प्राप्त करके ही जाती।

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