उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
अकबर उठने लगा तो पंडित जी ने अपने मन की बात कह दी। उसने कहा, ‘‘जहाँपनाह! यहाँ से पाँच कोस के अंतर पर एक भटियारिन की सराय थी। यहाँ आने-जाने पर वह मेरा एक पड़ाव होता था। सराय का मालिक एक सज्जन व्यक्ति है। कल रात मैं वहाँ विश्राम करने के लिए ठहरना चाहता था, परंतु वहाँ जा पता चला कि सरकारी कर्मचारियों ने सराय को गिराकर तबाह कर दिया है। इस कारण मुझे पाँच-पाँच कोस की यात्रा रोज़ करने के स्थान पर एक दिन में दस कोस की यात्रा करनी पड़ी है। इससे तो आगरा आनेवालों को बहुत कष्ट होगा।’’
‘‘और आप जानते हैं कि सराय का मालिक भला आदमी है?’’
‘‘मेरी विद्या ने यही बताया है।’’
‘‘और उस भले आदमी का घोंसला बरबाद करनेवाले का क्या हशर होगा?’’
‘‘यह तो पता नहीं किया। कहें तो पता करूँ। मगर मेरी राय है कि यात्रियों की सुविधा के लिए सराय तो रहनी चाहिए।’’
‘‘तो वहाँ सरकारी खर्च पर सराय बनवा दी जाए?’’
‘‘मगर इंतज़ाम सरकारी नहीं होना चाहिए।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘तब वह भी एक दूसरी नगर चैन बन जाएगी और वहाँ मेरे जैसे गरीब आदमी के रहने के लिए जगह नहीं होगी।’’
अकबर गंभीर विचार में पंडित का मुख देखता रह गया।
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