उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
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पंडित अगले दिन आगरा से लौटा और जल पीने के लिए तथा कुछ विश्राम करने के लिए सरायवाले कुएँ की जगत पर पहुँचा तो रामकृष्ण आधे दिन के परिश्रम करने के उपरांत विश्राम कर रहा था। मोहन और भगवती अपनी ससुराल अपनी पत्नियों के पास गए हुए थे। राधा दुकान पर बैठी यात्रियों को चने बेच रही थी। पंडित जी के आने पर रामकृष्ण ने हाथ जोड़ प्रणाम किया और पंडित जी को कुएँ से निकालकर जल पिलाने लगा।
जल पीते हुए पंडित जी ने पूछा, ‘‘रामकृष्ण! बहुत प्रसन्न प्रतीत होते हो?’’
‘‘हाँ महाराज! कल शहंशाह यहाँ आए थे। पाँच सौ अशरफियाँ मेरी हानि के एवज़ में दे गए हैं और यह कह गए हैं कि वह सराय अपने खर्च पर बनवा देंगे।’’
‘‘तो तुम प्रसन्न हो?’’
‘‘प्रसन्नता का कारण यही है कि पुनः आप जैसे सज्जनों की सेवा का अवसर मिलने लगेगा।’’
‘‘परंतु रामकृष्ण! यह स्वर्ण एक आततायी की लूट का भाग है।’’
‘‘लूट?’’ रामकृष्ण ने विस्मय में पूछ लिया।
‘‘हाँ। जानते हो लूट क्या होती है? जब कोई बलशाली व्यक्ति कहीं पड़े पराए धन को जबरदस्ती उठा ले जाए तो वह लूट कही जाती है।’’
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