उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
निरंजन देव समझ रहा था कि वह किसी समय भी पकड़ा जा सकता है। इस कारण वह सुंदरी को कमरे में छोड़ बाजार की ओर लपका। वहाँ से सामान्य साड़ियाँ और चोलियाँ खरीद लाया। साथ ही सिंदूर और हाथ में पहनने वाली चूड़ियाँ ले आया।
धर्मशाला में आ उसने सुंदरी के वस्त्र बदलवाए और फिर चुपचाप दोनों धर्मशाला से निकल युमना घाट पर पहुँच नौका पर चढ़कर यमुना पार चले गए। वहाँ से वे वृंदावन पैदल ही जा पहुँचे। वृंदावन में उसने नया घोड़ा-इक्का खरीदा और पुनः सवार हो वे दिल्ली की ओर चल पड़े।
निरंजन देव और सुंदरी के धर्मशाला से जाने के एक घड़ी उपरांत कोतवाल के आदमी पता करते हुए धर्मशाला में आए। नगर के द्वार पर खड़े चौकीदारों ने धर्मशाला के अस्तबल में खड़ा इक्का और घोड़ा पहचाना तो मुंशी से पूछने लगे। मुंशी ने बताया, ‘‘दो घंटे पहले एक आदमी और मुसलमानी पहरावे और कीमती जेवर पहने एक औरत आए थे और अपना नाम-पता बताकर दो नंबर के कमरे में गए हैं।’’
कमरे का दरवाजा बंद था, परंतु उसे ताला नहीं लगा था। दरवाजा खोलकर देखा गया तो वे वस्त्र जिनको पहने नगर-चौकीदार और सराय के मुंशी ने देखा था, एक चौकी पर रखे थे। भूषण वहाँ नहीं थे और न ही वह युवक और स्त्री थे।
यह अनुमान लगाया गया कि वे यमुना-स्नान पर गए होंगे। इस कारण वहीं धर्मशाले पर पहरा बैठा दिया गया कि जब वे आएँ तो उनसे पूछताछ की जाए।
साथ ही एक पत्र आगरा के कोतवाल को लिख दिया गया कि निरंजन देव के पिता शंकर देव जौहरी से पता किया जाए कि उसका लड़का कहाँ है और उसके साथ कौन है।
सायंकाल तक मथुरा के कोतवाल के सिपाही धर्मशाला में ठहरे युवक-युवती की प्रतीक्षा करते रहे, परंतु वे दोनों मथुरा पार से नहीं लौटे। अगले दिन मथुरा के युमना पार से पता किया गया और पता चला कि एक युवक और युवती यमुना पार से आए थे, परंतु वापस नहीं गये। तब वृंदावन में खोज आरंभ हुई।
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