उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
द्वितीय परिच्छेद
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निरंजन देव और सुंदरी नगर चैन से भागे तो दिन चढ़ने के उपरांत ही मथुरा पहुँच सके। एक बात निरंजन देव को दिन चढ़ने पर पता चली कि सुंदरी शाही बेगमों की-सी पोशाक पहने हुए थी। परमात्मा ने सूरत-शक्ल भी ऐसी दी थी कि किसी को भी यह समझ आ जाता कि कोई हिंदू युवक किसी शाही महल की स्त्री को भगाए लिए जा रहा है।
मथुरा नगर में प्रवेश करते ही नगर के चौकीदारों को संदेह हुआ तो उन्हेंने नगर-कोतवाल को सूचना दे दी और कोतवाल ने उसी समय यह आज्ञा जारी कर दी कि इस इक्केवाले को पकड़कर उसके सामने उपस्थित किया जाए।
निरंजन देव भी इस भय को समझ गया था। इस कारण उसने धर्मशाला में जाकर सबसे पहले सुंदरी के लिए सामान्य स्त्रियों के पहनने योग्य कपड़ों का प्रबंध किया। उसने धर्मशाला में इक्का खड़ा किया और धर्मशालावाले को कहा, ‘‘एक पृथक् कमरा चाहिए।’’
धर्मशालावाले ने विस्मय में दोनों को सिर से पाँव तक देखा और कहा, ‘‘अपने निवास-स्थान का पता लिखवाओ।’’
निरंजन देव ने अपने पिता का नाम इत्यादि लिखा दिया और सुंदरी को अपनी पत्नी लिखाया। धर्मशाला के मुंशी ने सब कुछ धर्मशाला के रजिस्टर में लिखकर सेवक को कमरा खोलकर देने की आज्ञा दे दी।
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