उपन्यास >> दो भद्र पुरुष दो भद्र पुरुषगुरुदत्त
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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...
मोहिनी विस्मय में
लक्ष्मी का मुख देखती रह गई। कुछ विचार कर पूछने लगी, ‘‘तो यह व्यापार की
बात नहीं, कोई घर की बात है क्या?’’
‘‘छोड़ो भाभी! क्या करोगी
जानकर? निर्धन जब पैसा पाते हैं, तो प्रायः पथ-भ्रष्ट हो ही जाते हैं।’’
‘‘बहिनजी!
आप भी तो एक निर्धन बाप की हो बेटी थीं और अब धनी परिवार में हैं। मेरी
अवस्था भी इसी प्रकार की है। हम दोनों तो पथ भ्रष्ट नहीं हुईं?’’
मोहिनी
को अपने पति के विरुद्ध बार-बार आरोप लगाते हुए सुन क्रोध आ रहा था। इस
कारण उसका अपनी वाणी पर नियन्त्रण छूटता जा रहा था। वह नहीं चाहती थी कि
कुछ कहे। परन्तु इस बार उसके मुख से निकल ही गया।
‘‘बहिनजी! हम
जीजाजी के अत्यन्त आभारी हैं। उन्होंने अपार कृपा कर हमको नरक से निकालकर
अपने पाँव पर खड़ा करने में बहुत-कुछ किया है। इसलिए हमारी ज़बान उनके
विषय में कभी कुछ नहीं कहती। अन्यथा उन्होंने भी तो दुनिया की सैर की है
और हमारी बहिनजी के साथ विश्वासघात किया है।
‘‘मेरी तो यही प्रार्थना
है कि जीजा और साला परस्पर निपट लें। किन्तु हमको अपने मन में मैल नहीं
लाना चाहिए।’’
लक्ष्मी
को इस अस्पष्ट लाँछन से आग लग गई। वह चरणदास से तो पहले ही रुष्ट थी, अब
इस असत्य आरोप से क्रोध में बोल उठी, ‘‘यह भी चरण ने बताया है क्या? वह
झूठा है। अपने पाप को छिपाने के लिए चाँद पर थूकने का यत्न कर रहा है।
भगवान् इसका बदला लेगा।’’
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