उपन्यास >> दो भद्र पुरुष दो भद्र पुरुषगुरुदत्त
|
10 पाठकों को प्रिय 377 पाठक हैं |
दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...
‘‘मुकर्रम लालाजी,
आप दो
हफ्ते से तशरीफ नहीं लाये। इससे दिल बेकरार रहता है। रात-भर आपकी याद में
नींद से महरूम रहती हूँ। कभी तो खुले-खुले आँखें भी दर्द करने लगती हैं।
बिस्तर सूना-सूना दिखाई देता है।
‘‘यह तो बेरहमी की हद है
कि एक
बेबस इन्सान तड़प-तड़पकर राते गुजार रहा हो और दूसरा गुलछर्रे उड़ा रहा
हो। आपने पाँच सौ रुपया भेजा है, आपकी ऐन इनायत है। मगर ये चाँदी के
टुकड़े दिल की बेकारी किस तरह दूर कर सकते हैं!
‘‘आपका भेजा हुआ चैक बैंक
से वापस आ गया है। उस पर आपके दस्तखतों में कुछ गलती हो गई मालूम होती है।
‘‘चैक
इस चिट्ठी के साथ ही वापस भेज रही हूँ। जो कुछ आपको देना हो वह खुद तशरीफ
लाकर दे जाया कीजिए। बैंक के लोग चैक को देख मेरे मुख पर देखने लगते हैं,
खास तौर पर जब चैक हर महीने कायदे से आ रहे हैं।’’
‘‘आप कल तशरीफ लायें।
मेरी अर्ज मानें तो कल दोपहर के समय आ जाइये और रात को इस खादिमा के
गरीबखाने को रौनक बख्शिये।
आपकी बाँदी
शरीफन’’
|