उपन्यास >> दो भद्र पुरुष दो भद्र पुरुषगुरुदत्त
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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...
चिट्ठी
के साथ बैंक के वापस आया हुआ एक चैक नत्थी किया हुआ था। चिट्ठी पढ़कर
लक्ष्मी के पूर्ण शरीर का रक्त सिर को चढ़ गया। उसको ऐसा आभास होने लगा कि
सारा कमरा उसके चारों ओर चक्कर खा रहा है। वह उठी, परन्तु चक्कर खाकर पुनः
सोफे पर बैठ गई। मोहिनी उसको शान्त करने के लिए कहने लगी, ‘‘बहनजी, धैर्य
से...।’’
लक्ष्मी ने मोहिनी के हाथ
को झटका देकर दूर फेंक दिया और
कहने लगी, ‘‘चली जाओ यहाँ से। मैं तुम्हारा मुख भी देखना नहीं चाहती।
तुमने मेरे चित्त की शान्ति को भंग कर दिया है।’’
सुमित्रा ने अपनी माँ से
कहा, ‘‘माँ! चलो। काँच के महल में बैठकर दूसरों पर ढेले फेंकने वालों का
यही हाल होता है।’’
मोहिनी
अभी जाना नहीं चाहती थी, परन्तु लक्ष्मी वहाँ से उठकर चली गई। मोहिनी ने
सुमित्रा से कहा, ‘‘सुमित्रा! बहुत बुरा किया है तुमने!’’
‘‘माँ! फूफाजी ने मेरा
जीवन बरबाद कर दिया है। मुझे शांति तो तब होगी जब कस्तूरी को अपनी पत्नी
से निराशा मिलेगी।’’
‘‘क्या मतलब?’’
‘‘छोड़ो मतलब को, अब
चलो।’’
मोहिनी
अभी विचार कर ही रही थी कि वह वहाँ से जाय अथवा नहीं कि गजराज स्नान कर
बाहर आ गया। उसने आते ही पूछा, ‘‘सुमित्रा! तुम्हारी बूआ कहाँ गई हैं?’’
उसके मुख पर क्रोध दिखाई देता था।
‘‘वह तो क्रोध से
लाल-पीला होकर अपने कमरे में चली गई हैं।’’
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