उपन्यास >> दो भद्र पुरुष दो भद्र पुरुषगुरुदत्त
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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...
गजराज उसके कमरे की ओर
चला गया। गजराज की दृष्टि में घृणा का आभास पा विवश मोहिनी को वह स्थान
छोड़ना पड़ा।
घर
आते हुए मार्ग में मोहिनी ने पुनः भर्त्सना के भाव में सुमित्रा से कहा,
‘‘न जाने तेरी मति को क्या हो गया है, जो तुम अपने बड़ों की पगड़ी उछालने
लगी हो। मैं तो वहाँ झगड़े को शान्त करने के लिए आई थी, परन्तु तुमने तो
आग पर घी डाल दिया है।’’
‘‘माँ! तुम भूल रही हो।
इस विषय में मैंने
बात नहीं चलाई थी। बूआ ने ही पहले कहा था कि पिताजी ने उनके साथ धोखा किया
है। मैं जानती हूँ कि पिताजी अनुचित रीति से फूफाजी को, कम्पनी के लाखों
रुपये बिना लिखत-पढ़त और जमानत के दे देते थे। उन लाखों से और लाखों बन
जाते थे।
‘‘फूफाजी ने पिताजी को
कम्पनी का सेक्रेटरी बनाकर उन पर
कोई एहसान नहीं किया था। अपने लाभ के लिए ही उन्होंने ऐसा किया था। अब
कस्तूरी को भी सेक्रेटरी बनाया है।’’
‘‘पर हमको लाभ तो हुआ
है।’’
‘‘वह लाभ तो जिसको भी
सेक्रेटरी बनाया जाता, उसको ही हो जाता।’’
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