उपन्यास >> दो भद्र पुरुष दो भद्र पुरुषगुरुदत्त
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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...
‘‘जब आपने बात कर ली है
तो ठीक है। लड़की के लिए कपड़े बनवाने की बात है।’’
‘‘सब कुछ हो जायगा। मैं
डोली के दिन सायंकाल अपने मित्रों को एक भोज देना चाहता हूँ। उसका प्रबन्ध
इस कोठी में ही होगा।’’
लक्ष्मी ने कस्तूरी की ओर
देखकर पूछा, ‘‘क्यों कस्तूरी, ठीक है?’’
‘‘देखो
माँ! मुझको अपनी नौकरी चाहिए। पिताजी ने लाखों रुपये कम्पनी के इधर-उधर
किए हैं। वह सस्ते सूद पर उनको मिलते रहने चाहिए। लाला मनसाराम को कम्पनी
के प्रबन्ध में अधिक दखल की आवश्यकता है। इन सब कामों के लिए यह विवाह
आवश्यक है।’’
गजराज हँस पड़ा। उसने
कहा, ‘‘बड़े-बड़े राजे-महाराजे
अपने राज्य और आराम के लिए लड़कियाँ लेते और देते हैं। फिर मैंने यदि यह
किया है तो क्या हानि की है?’’
‘‘मैंने इन्कार नहीं किया
पिताजी! मैंने तो माँ को वस्तुस्थिति का ज्ञान मात्र कराया है। यह विवाह
आवश्यक है इसलिए हो रहा है।’’
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