उपन्यास >> दो भद्र पुरुष दो भद्र पुरुषगुरुदत्त
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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...
‘‘हमें निमन्त्रण ही
किसने भेजा है? आने के विषय में तो उसके बाद ही विचार किया जाता है।’’
‘‘मैंने लिखा तो था। कहीं
ऊपर-नीचे हो गया होगा।’’
‘‘अच्छा, जाकर ऊपर-नीचे
देखना। यदि कहीं मिल जाय तो उसे सुरक्षित रख छोड़ना। हममें से कोई नहीं
आयेगा।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘यह तो निमंत्रण माँगने
के तुल्य हो गया।’’
‘‘नहीं-नहीं, सुमित्रा!
मैंने मामाजी के नाम परिवार सहित तथा तुम्हारे लिए एक पृथक् लिखा था।’’
‘‘हमें मिला नहीं और मैं
समझती हूँ कि अब मिलने पर कोई आयेगा भी नहीं।’’
इस समय दुकानदार ने बिल
दिया तो सुमित्रा ने मूल्य चुकाया और कपड़े उठा बाहर आकर अपनी मोटर में
सवार हो चली गई।
कस्तूरीलाल
को स्मरण था कि उसने निमन्त्रण-पत्र स्वयं लिखे थे। अतः घर पहुँचते ही
उसने चपरासी को, जो निमन्त्रण-पत्र बाँटने के लिए गया था, बुलाकर पूछा,
‘‘मामाजी के यहाँ निमन्त्रण-पत्र दे आये थे?’’
‘‘वे बाबूजी ने निकाल
लिये थे और कह रहे थे कि उनको वे स्वयं देकर आएँगे।’’
कस्तूरीलाल पिताजी के पास
जा पहुँचा, ‘‘पिताजी! आप मामाजी को निमन्त्रण-पत्र देने के लिए गए थे
क्या?’’
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