उपन्यास >> दो भद्र पुरुष दो भद्र पुरुषगुरुदत्त
|
10 पाठकों को प्रिय 377 पाठक हैं |
दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...
‘‘नहीं कस्तूरी! मैंने
अपनी ओर से तो उससे बिलकुल सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया है। तुम्हारी माँ की
भी रुचि नहीं थी, इसलिए नही गया।’’
कस्तूरी
चुप रहा। वह जानता था कि उसका मामा और पिताजी दोनों एक ही थैले के
चट्टे-बट्टे हैं। वह क्यों किसी एक का पक्ष लेकर दूसरे को असन्तुष्ट करे?
विवाह
हुआ, बरात बड़ी धूमधाम से चढ़ाई गई। समधियों ने भोजन ‘वैंजर’ रैस्तराँ
वालों के प्रबन्ध में दिया था। डोली आई और उसी सायंकाल ‘डैविको’ रैस्तराँ
वालों के प्रबन्ध में गजराज ने एक सहस्र व्यक्तियों को भोज दिया।
भोज
समाप्त हुआ तो घर के लोग, जिनमें लाहौर से आये हुए सम्बन्धी भी थे, जब
बैठे तो एक ने पूछ लिया, ‘‘चरण और उसकी पत्नी कहीं दिखाई नहीं दिये?’’
‘‘हाँ, वे आजकल नाराज
हैं।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘नाली के कीड़े आसमान
में उड़ने योग्य बना दिये थे, इसलिए।’’
लक्ष्मी
ने बात बदल दी। वह अपने पति की बात का खण्डन करना नहीं चाहती थी। परन्तु
इस विषय में वह अपने पति को अधिक दोषी मानती थी। वह अपने पति के कृत्यों
का प्रमाण तो अपनी आँखों से देख चुकी थी। उसने कहा, ‘‘रात के बारह बज रहे
हैं। मैं समझती हूँ कि अब हमें विश्राम करना चाहिए।’’
कस्तूरीलाल
की दूर के रिश्ते की बहिन रजनी इस समय नववधू के पास बैठी थी। लक्ष्मी का
प्रस्ताव सुनकर वह बोली, ‘‘चाची, मैं भाभी को लेकर जा रही हूँ, आप थोड़ी
देर में भैया को भेज देना।’’
|