उपन्यास >> दो भद्र पुरुष दो भद्र पुरुषगुरुदत्त
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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...
‘‘पसंद और ना पसंद का तो
प्रश्न ही नहीं। अब तुम यहाँ आई हो तो राज करोगी ही और मैं श्रीमतीजी की
सेवा करूँगा ही।’’
‘‘सत्य?’’
‘‘हाँ-हाँ, इसमें सन्देह
क्यों हुआ?’’
‘‘तो मेरे सैंडल खोल
दीजिए। आपकी माताजी ने बहुत तंग ले दिये हैं। मेरे पैरों में दर्द होने
लगा है।’’
कस्तूरी इस आज्ञा को सुन
अवाक् उसका मुख देखने लगा। इस पर राजकरणी ने कहा, ‘‘पहली परीक्षा में ही
अनुत्तीर्ण?’’
फिर
बोली, ‘‘लो मैं स्वयं ही खोल लेती हूँ।’’ उसने सैंडल उतारकर दूर फेंक दिए
और बोली, ‘‘अब मैं चाहती हूँ कि मैं आपके बूट के तस्मे खोल दूँ।’’
‘‘नहीं, इसकी आवश्यकता
नहीं।’’
‘‘वाह, खूब अच्छे सेवक
हैं! मालिक का कहना भी नहीं मानते!’’
‘‘यह आज्ञा अनधिकारयुक्त
है।’’
‘‘तो अधिकारपूर्ण आज्ञा
क्या है, तनिक यह भी बता दीजिए?’’
‘‘वह बताने के लिए अभी
सारी रात पड़ी हुई है।’’
‘‘ठीक, मैं प्रतीक्षा कर
रही हूँ।’’
‘‘कुछ खाओ-पिओगी नहीं?’’
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