उपन्यास >> दो भद्र पुरुष दो भद्र पुरुषगुरुदत्त
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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...
‘‘आपके पिताजी द्वारा दिए
गए भोज में पेट-भर खाया है। आपकी माताजी वह दूध रख गई हैं। इच्छा हो तो पी
लीजिए और पिला दीजिए।’’
‘‘नहीं, कुछ मैं भी तो
अपनी रानी के लिए और अपने लिए रख गया हूँ।’’
‘‘तो लाइए, वह क्या
नियामत है?’’
कस्तूरी पलंग से उठा और
सामने की अलमारी का ताला खोल उसमें से एक बोतल, दो गिलास, दो सोडे की
बोतलें और नमकीन की तश्तरी उठा लाया।
बोला, ‘‘आज तो यह चलेगा।’’
राजकरणी ने देखा कि वह
ह्विस्की थी। दो बोतल सोडे की थीं। उसने कहा, ‘‘मैंने कभी पी नहीं।’’
‘‘मैं
भी अभी नौसिखिया ही हूँ। मुझे इसकी आवश्यकता इस कारण हो रही है कि सोलह
आने का रुपया मुझसे छीनकर मुझे चवन्नी दे दी गई है। इसलिए रुपये को भूलकर
चवन्नी स्वीकार करने के लिए इस जादू के पानी की आवश्यकता पड़ी है।’’
‘‘आप पीजिए। मुझे तो
चवन्नी की आशा में यह चाँदी का खरा रुपया मिला है। मुझे तो कुछ भी भूलने
की आवश्यकता नहीं।’’
‘‘तो ठगे हुए को ही पिला
दो। इतनी पिलाओं कि उसको चवन्नी भी रुपया ही दिखाई देने लगे।’’
‘‘पर मैं तो जानती नहीं
किस तरह पी अथवा पिलाई जाती है।’’
कस्तूरी
ने बोतल खोल डाली। एक पैग के लगभग गिलास में डालकर उस पर सोड़ावाटर डाल
लिया। उसने सुरकी लगाकर पी और फिर राजकरणी को पीने का आग्रह करने लगा।
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