उपन्यास >> दो भद्र पुरुष दो भद्र पुरुषगुरुदत्त
|
10 पाठकों को प्रिय 377 पाठक हैं |
दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...
‘‘ठीक तो लोग अत्तारों और
हकीमों
की चिकित्सा से भी हो जाते हैं, अनपढ़ों के टोटकों से भी लोग ठीक हो जाते
हैं, परन्तु यह तो मूर्ख है।’’
लक्ष्मी इस पर कुछ बोली
नहीं। फिर इधर-उधर की बातें होने लगीं। लक्ष्मी ने कहा, ‘‘तो तुम अपनी
दवाई ही दे दो।’’
‘‘हाँ, वह मैं दे दूँगा।
मुझे आशा है कि यह शीघ्र ही रोगमुक्त हो जायगी।’’
‘‘चरण, मेरी इच्छा है कि
भाभी तथा बच्चों को कुछ दिन के लिए हमारे घर पर रहने के लिए भेज दो।’’
‘‘इससे क्या होगा?’’
‘‘मेरा चित्त लगा रहेगा।
बच्चों का भी मन-बहलाव हो जायगा। मोटर सुमित्रा को स्कूल छोड़ जाया करेगी
और वापस ले आया करेगी।’’
‘‘यह
तो ठीक है, बहिन! परन्तु कितने दिन तक इस प्रकार की सुख-सुविधा का ये
उपयोग कर सकते हैं? जो वस्तु अपनी सामर्थ्य की न हो उसका प्रयोग ही क्यों
किया जाय?’’
‘‘वाह मामाजी!’’ कस्तूरी
बोल उठा, ‘‘कम्पनी बाग मोल नहीं ले सकते तो क्या वहाँ घूमने के लिए भी न
जायँ?’’
चरणदास
कस्तूरी को इस प्रकार युक्ति करते देख चकित रह गया। उसने समझाते हुए कहा,
‘‘मिस्टर खन्ना! कम्पनी बाग और तुम्हारी कोठी में भारी अन्तर है। कम्पनी
बाग एक सार्वजनिक स्थल है। सर्वजनों में मैं भी एक व्यक्ति हूँ, इस कारण
एक अंश तक वह मेरा भी है। परन्तु तुम्हारे पिता के घर में मेरे भाग का कोई
अंश नहीं है।’’
|