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उपन्यास >> दो भद्र पुरुष

दो भद्र पुरुष

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :270
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7642
आईएसबीएन :9781613010624

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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...


इस युक्ति का उत्तर कस्तूरी नहीं जानता था। फिर भी वह समझ रहा था कि मामाजी की युक्ति में कहीं दोष है। यह उसके मन की बात नहीं थी।

लक्ष्मी ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘लड़के को तो समझा दिया है चरण! परन्तु यह बात है सर्वथा निराधार। तुम मुझसे छोटे हो और ये बच्चे तो और भी छोटे हैं। मेरा स्नेह तुमसे और इनसे है। मेरे स्नेह में जब तुम लोगों का भाग है तो फिर मेरे घर में भी है। यह ठीक है कि तुम खन्ना साहब की कोठी के स्वामी नहीं बन सकते, वैसे ही जैसे कि तुम कम्पनी बाग के भी स्वामी नहीं बन सकते। परन्तु मेरे स्नेह में भागीदारी होने के नाते तुम, मोहिनी और बच्चे वहाँ आकर रह सकते हो।’’

‘‘तो फिर बहिन के घर की वस्तुएँ भाई के लिए वर्जित क्यों हैं?’’

‘‘इस कारण कि तुम उनके मालिक नहीं बन सकते, वैसे ही जसे कम्पनी बाग तुम्हारा केवल इतने अंश में हैं कि तुम वहाँ भ्रमण कर सको। परन्तु रात के बारह बजे के पश्चात् तुम वहाँ ठहरना चाहो तो, पुलिस निकालकर बाहर कर देगी।’’

चरणदास समझ गया कि लक्ष्मी कम पढ़ी होने पर भी उससे अच्छी युक्ति करती है। इस प्रकार निरुत्तर हो उसने कह दिया, ‘‘अच्छा बहिन! सुभद्रा ठीक हो जाये तो कुछ दिन के लिए तुम्हारे यहाँ आ जाएँगी।’’

कस्तूरी उछलकर खड़ा होते हुए बोला, ‘‘हुर्रे!’’

‘‘क्या हुआ कस्तूरी!’’ चरणदास ने पूछा।

‘‘आप युक्ति में माताजी से हार गए हैं।’’

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