उपन्यास >> दो भद्र पुरुष दो भद्र पुरुषगुरुदत्त
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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...
भोजनोपरान्त
गजराज अपने सोने के कमरे में गया और खाली हाथ वहाँ से लौट आया। आते ही
उसने पूछा, ‘‘क्या तुमने मेरी कोट की जेब में से रुपये निकाले हैं?’’
‘‘कहाँ रखा था आपने, अपना
कोट?’’
‘‘रखा तो अलमारी में ही
था। चाबी मेरे पास थी, परन्तु उसकी जेबें तो खाली हैं।’’
‘‘स्मरण कीजिये आपने
कितने रुपये रखे थे और कहाँ रखे थे?’’
गजराज
गम्भीर विचार में लीन हो गया। वह मुंशी के पास गया और अपना हिसाब-किताब
देखने लगा। पिछले तीन वर्ष में उसने कई लाख रुपया व्यय कर दिया था। उसका
अधिकांश धन सन्तोषी के घर पर मद्य, जुआ और दलाली में व्याय हुआ था। बहुत
बड़े-बड़े चैक काटे गये थे।
बैंक की पास-बुक देखी गई
तो पता चला
कि सबसे अधिक चैक संतोषी के नाम काटे गये हैं। कुछ अर्जुनसिंह के नाम भी
थे। इस समय तक उसके सब बांड बिक चुके थे। बहुत-से कम्पनी और मिल के भी
हिस्से बिक चुके थे। इस स्थिति से तो गजराज घबरा उठा और आज एक मधुर स्वप्न
से जाग पड़ने के समान वह अतीत की स्मृति में विलीन हो गया।
वह
स्मरण करने लगा कि क्या-क्या उस स्वप्न में था। इतनी औरतें थीं कि वह उनका
नाम तक स्मरण नहीं रख सकता था। कइयों के रूप-रंग की धूँधली-सी स्मृति उसके
मन पर अंकित थी और कई तो वह अब स्मरण भी नहीं कर सकता था। उसको ऐसा प्रतीत
होता था कि घोर निद्रा में कई तो विद्युत् की चमक के समान उसके अन्धकारमय
मानस पर चमकीं और चली गई थीं।
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