उपन्यास >> दो भद्र पुरुष दो भद्र पुरुषगुरुदत्त
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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...
फिर उसको द्यूतगृह का
दृश्य भी
स्मरण हो आया। ताश के पत्ते बाँटे जा रहे थे। हरे रंग के नोट इधर-उधर
उड़ते हुए दिखाई दे रहे थे। कोई ले रहा था और कोई दे रहा था।
यह
सब-कुछ अब धुँधला-सा ही था। स्वप्न में बहुत-कुछ आया और विलीन हो गया। वह
अपने को जान गया और अनुभव करने लगा। परन्तु उसके स्वप्न का अस्पष्ट चित्र
उसके सम्मुख था। परिणामस्वरूप उसका बैंक बैलेंस शून्य तक जा पहुँचा था।
उसकी जेब खाली थी।
वह स्मरण कर रहा था कि
पिछली रात उसने जुए में
कुछ जीता था। प्रतिपक्षी सौ-सौ के कई नोट हारा था और उसने उनको
ठूँस-ठूँसकर जेब में डाल लिया था। तदनन्तर एक औरत उसके पास आई और उसको
शराब पिला गई। फिर वह अचेत हो गया और सन्तोषी ने उसे अपने घर पर ही सुला
लिया था। प्रातः जब वह उठा तो उसके कपड़े झाड़-फूँक तथा प्रैस कर, सामने
खूँटी पर टँगे हुए थे। वह शौचादि से छुट्टी पा, कपड़े पहन घर आ गया था और
यह विचार कर कि उसके कोट की जेब में बहुत से नोट हैं, कोट को अलमारी में
बन्द कर काम पर चला गया था।
यह तो लक्ष्मी के कहने पर
कि मुंशी
ने कह दिया है कि बैंक में रुपया नहीं है, वह अलमारी खोल रुपये देखने के
लिए गया था। इस बात से उसके सम्मुख स्मृतियों की श्रृंखला घूम गई। वह ऐसा
अनुभव कर रहा था कि उसकी मुट्ठी मे से रेत निकल गया है और अब उसका हाथ
खाली रह गया है।
इन विचारों से उसने मुंशी
से कह दिया, ‘‘मैं
चाहता हूँ कि आज सायंकाल तक मेरी पूर्ण सम्मत्ति और उस पर ऋण का ब्यौरा
बनाकर तैयार कर दिया जाय।’’
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