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उपन्यास >> दो भद्र पुरुष

दो भद्र पुरुष

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :270
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7642
आईएसबीएन :9781613010624

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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...


‘‘यदि यह पाप का धन है और हम पाप के धन को भोग रहे हैं तो इसके लिए हमें नरक की यातना भी भोगनी होगी। कभी सोए-सोए मेरी समझ में ऐसा आने लगता है कि मृतात्माएँ चिमटों से मेरे शरीर की चमड़ी खींच-खींचकर उखाड़ रही हैं। वे कहती हैं कि अभी सब पूरा नहीं हुआ। पच्चीस सौ दिया था, उसका सूद मिलाकर तीन हज़ार रुपये हुआ और मेरी विधवा पत्नी को इन्होंने दिया बाईस सौ। शेष आठ सौ चाहिए और चिमटे से आये मांस का मूल्य तो दो पैसा भी नहीं होता। फिर हर ओर से आवाज़ें आने लगती हैं, ‘और उखाड़ो। इसका अपना तो यह मांस ही है।’ फिर जब चिमटे से मांस उखाड़ने लगते हैं तो मुझे असह्य वेदना होती है। इससे मेरी नींद खुल जाया करती है।’’

‘‘मोहिनी, यह सब भ्रम है। दो ही मापदण्ड हैं, जिनसे हम अपनी कमाई की श्रेष्ठता का अनुमान लगा सकते हैं–एक तो देश का कानून और दूसरे अपनी बुद्धि।’’

‘‘कानून में जिस प्रकार हमारे लिए धन लेना तथा देना विहित है हम वैसा ही करते हैं। ‘एक्च्युअरी’ की दो रिपोर्टें हमारे कार्य पर निकल चुकी हैं और उसने हमारी कल्पनी को सबसे अधिक विश्वस्त, सुरक्षित और उदार लिखा है।

‘‘दूसरा मापदण्ड है बुद्धि का। अपनी बुद्धि के अनुसार तो हम कोई भी ऐसा कार्य नहीं करते जिससे कुछ भी धोखाधड़ी का अनुमान लगाया जा सके। सब नियम, प्राप्त करने की रकम और देने की रकम अपनी सूचियों में लिख देते हैं और उसके अनुसार सब काम करते हैं। न हम झूठी आशाएँ दिलाते हैं और न ही हम जो वचन देते हैं उससे किसी को कुछ कम देते हैं। विपरीत इसके कभी इसमें भी रिआयत ही करते होंगे।

‘‘देखो मोहिनी, तुम भगवद्भजन करो और अपने हृदय को सुदृढ़ बनाओ। विश्वास रखो कि मैं कभी कोई बुरी बात नहीं करूँगा।’’

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