उपन्यास >> दो भद्र पुरुष दो भद्र पुरुषगुरुदत्त
|
10 पाठकों को प्रिय 377 पाठक हैं |
दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...
‘‘क्यों?’’
‘‘तनिक अपना मुख दर्पण
में तो देखिये। लगातार यात्रा करने से कितना उतर गया है?’’
‘‘अब मैं कम्पनी से एक
मास का अवकाश लेने वाला हूँ।’’
‘‘अवकाश ही लेना है तो
कहीं घूमने के लिए चलिए। सब लोग कश्मीर और नैनीताल जा रहे हैं।’’
‘‘यह भी विचार कर रहा
हूँ।’’
वास्तव
में चरणदास अभी कुछ दिन तक दिल्ली से बाहर जाना नहीं चाहता था। यह तो केवल
मोहिनी को प्रसन्न रखने के लिए कह रहा था। उसने अपने कार्यक्रम की बात
बताते हुए कहा, ‘‘मैं चाहता हूँ कि परसों सुभद्रा और यमुना को छोड़ने के
लिए बम्बई तक जाऊँ, परन्तु इतनी जल्दी कम्पनी से छुट्टी नहीं मिल सकेगी।’’
‘‘मिल क्यों नहीं सकेगी?
जीजाजी से मैं आपकी सिफारिश कर दूँगी।’’
‘‘आज वे इतने नाराज़
मालूम होते हैं कि किसी की बात सुनने के लिए तैयार ही नहीं हैं।’’
‘‘भूल
मुझसे हुई है।’’ मोहिनी ने कहा, ‘‘जीजाजी फोन पर इस प्रकार बोले, ‘‘जैसे
कोई पुलिस अफसर बोल रहा हो। कहने लगे, ‘सेक्रेटरी साहब की मिसेज़ कहाँ
हैं?’ जब मैंने कहा, ‘‘मैं बोल रही हूँ।’ तो बोले, ‘कहाँ गई थीं आप?’ मैं
डर गई। मैंने झूठ बोल दिया और कहा, ‘मैं घर पर ही रही हूँ, कहीं नहीं गई।’
मुझे डर लग गया था कि कहीं कोई झगड़े की बात हो गई है। मैंने इस कारण अपना
घर पर रहना ही बताया। वास्तव में वे सुमित्रा से पूछ चुके थे कि मैं कहाँ
थी, और उसने बताया था कि मैं मिसेज़ पसरीचा के घर गई थी।
|