उपन्यास >> दो भद्र पुरुष दो भद्र पुरुषगुरुदत्त
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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...
इसके बाद गजराज शरीफन को
प्रति-मास सौ रुपये भेजने लगा। लखनऊ जाकर एक-दो दिन ठहरने का अवसर तो दो
मास पश्चात् ही मिला।
गजराज
ने अपने वहाँ पहुँचने का दिन, ठहरने का स्थान और मिलने का समय लिखकर भेजा
तो घड़ी की सुई की भाँति वह ठीक वक्त पर निश्चित स्थान पर पहुँच गई।
मुलाकात कार्लटन होटल में
हुई। शरीफन ने दरवाज़ा खटखटाया तो घड़ी में समय देख गजराज समझ गया कि वह आ
गई है। उसने दरवाज़ा खोल दिया।
आज
शरीफन काले परिधान में आई थी। इन काले कपड़ों में तो उसका चांद-समान
उज्जवल मुख और भी अधिक सुन्दर दिखाई दे रहा था। गजराज इस सौन्दर्य को अपने
सामने खड़े देख चकाचौंध रह गया। शरीफन ने उसको चुपचाप खड़े अपनी ओर एकटक
देखते पाया तो वह मुस्करायी और पूछने लगी, ‘‘पहचाना नहीं आपने?’’
‘‘नहीं,
सूरत-शक्ल बहुत बदल गई है। रात से दिन हो गया है। दूज का चाँद चौदहवीं का
चाँद हो गया है। उजड़ा वीरान जंगल गुलिस्तान हो गया है।’’
‘‘रहने दीजिये, वही शरीफन
हूँ, जो आपके टुकड़े खाकर जिंदगी बसर कर रही हूँ।’’
इतना कहकर वह कमरे में
घुस आई। गजराज ने दरवाज़ा बन्द कर अन्दर से चटकनी चढ़ा दी।
‘‘यह क्या कर रहे हैं?’’
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