उपन्यास >> दो भद्र पुरुष दो भद्र पुरुषगुरुदत्त
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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...
‘‘बिना खलल के मुलाकात का
इन्तज़ाम। बैठो, कैसे आई हो? ताँगे में, मोटर में या पैदल ही?’’
‘‘आई तो ताँगे में हूँ,
मगर छोड़ दिया है।’’
‘‘कुछ हर्ज नहीं। मैं
तुमको टैक्सी में भेज दूँगा।’’
‘‘मगर मैं वापस जाने का
खयाल छोड़कर यहाँ आई हूँ।’’
‘‘ओह! तो कहाँ जाने का
खयाल है?’’
‘‘आप जहाँ ले चलेंगे।’’
‘‘मैं तो अभी अपने साथ
नहीं ले जा सकता। तुम अपने गाँव में ही रहो। मैं अब तुमसे मिलने
जल्दी-जल्दी इधर आया करूँगा।’’
इसके
बाद दोनों में मुस्तकबिल के मुताल्लिक बहुत तजवीज़ें हुईं। यह फैसला हो
गया कि गजराज दिल्ली में उसके लिए मकान बनवा देगा और वह वहाँ चलकर रहेगी।
शरीफन
रात-भर वहाँ रही और अगले दिन नोटों से जेब को ठसाठस भरे हुए रायबरेली लौट
गई। शरीफन के खाविन्द के बीमा की बात गजराज को विदित नहीं थी। वास्तव में
बीमा कराने के वक्त उसकी गजराज से वाकफियत ही नहीं थी।
जब क्लेम
किया गया तो इन्स्पेक्टर जाँच करने के लिए पहुँचा और उसको विदित हुआ कि
बीमा तो मिर्ज़ा साहब के घातक रोग से ग्रसित होने के पश्चात् कराया गया
है। उसने अपनी जाँच की रिपोर्ट हैड ऑफिस भेज दी।
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