मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 1 भूतनाथ - खण्ड 1देवकीनन्दन खत्री
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भूतनाथ - खण्ड1 पुस्तक का ई-संस्करण
दूसरा बयान
दिन पहर भर से कुछ ज्यादे चढ़ चुका है। यद्यपि अभी दोपहर में बहुत देर है तो भी धूप की गर्मी इस तरह बढ़ रही है कि अभी से पहाड़ के पत्थर गर्म हो रहे हैं और उन पर पैर रखने की इच्छा नहीं होती, दो पहर दिन चढ़ जाने के बाद यदि ये पत्थर आग के अंगारों का मुकाबला करने लग जायें तो क्या आश्चर्य है!
पहाड़ के ऊपरी हिस्से पर एक छोटा-सा मैदान है जिसका फैलाव लगभग डेढ़ या दो बिगहे का होगा। इसके ऊपर की तरफ सिर उठा कर देखने से मालूम होता है कि कुछ और चढ़ जाने से पहाड़ खतम हो जायेगा और फिर सरपट मैदान दिखाई देगा पर वास्तव में ऐसा नहीं है।
इस छोटे मैदान में पत्थर के कई ढोंके मौजूद हैं जो मैदान की मामूली सफाई में बाधा डालते हैं और पत्थर के बड़े चट्टान भी बहुतायत से दिखाई दे रहे हैं जिनकी वजह से वह जमीन कुछ सुन्दर मालूम होती है मगर इस वक्त धूप की गर्मी के समय सभी बातें बुरी और भयानक जान पड़ रही हैं।
इस मैदान में केवल ढाक (पलास) के कई पेड़ दिखाई दे रहे हैं सो भी एक साथ नहीं जिनसे किसी तरह का आराम मिलने की आशा हो सके। इन्हीं पेड़ों में से एक के साथ हम बेचारी कला को कमन्द के सहारे बँधे हुए और उसके सामने गदाधरसिंह अर्थात् भूतनाथ को खड़ा देख रहे हैं, अब सुनिए कि इन दोनों में क्या बातें हो रही हैं।
गदाधर : रात के समय जब मैंने तुम्हें गिरफ्तार किया तब यही समझे हुए था कि कला और बिमला में से किसी एक को पकड़ पाया हूँ मगर अब मैं देखता हूँ कि तू कोई और ही औरत है!१ (१. पाठकों को याद होगा कि कला और बिमला हर वक्त अपनी असली सूरत को एक झिल्ली से छिपाये रहती थीं। इस समय भी उनके चेहरे पर वही झिल्ली है।)
कला : तो क्या उस समय तुमने वहाँ पर कला और बिमला को अच्छी तरह देखा या पहिचाना था?
गदा० : नहीं, पहिचाना तो नहीं था मगर बातें जरूर की थीं और वे बातें भी ऐसे ढंग की थीं जिनसे उनका कला और बिमला ही होना साबित होता था।
कला : वह तुम्हारा भ्रम था, इस घाटी में कला बिमला नहीं रहतीं।
गदा० : (हँस कर) बहुत खासे! अब थोड़ी देर में कह दोगी कि मैं कला और बिमला को जानती ही नहीं!
कला : नहीं ऐसा तो मैं नहीं कह सकती कि मैं दोनों को पहिचानती तक नहीं, मगर यह जरूर कहूँगी कि वे दोनों यहाँ नहीं रहतीं और हम लोगों को उनसे कोई वास्ता नहीं।
गदा० : तो फिर तुम्हारी तरफ से इस ढंग की बातें क्यों की गईं कि मानो तुम ही कला या बिमला हो?
कला : यह तो उनसे पूछो तो मालूम हो जिन्होंने तुमसे बातें की थीं, मैंने तो तुमसे एक बात भी नहीं की थी।
गदा० : वे कौन थीं जो मुझसे बातें कर रही थीं?
कला : मेरी मालकिन।
गदा० : आखिर उनका कुछ नाम-पता भी है या नहीं?
कला : यह बताने की तो कोई जरूरत नहीं।
गदा० : तुझे झख मार कर बताना ही पड़ेगा और यह भी बताना पड़ेगा कि कला और बिमला कहाँ हैं? तेरा यह कहना मैं नहीं मान सकता कि कला-बिमला इस घाटी में नहीं रहतीं और तुम लोगों का उनसे कोई सम्बन्ध नहीं। आखिर तुमने मुझसे दुश्मनी क्यों की और मैं क्यों इस घाटी में कैद करके लाया गया? तुम लोगों का मैंने क्या बिगाड़ा था?
कला : हम लोगों के तुम्हारे साथ किसी तरह की दुश्मनी नहीं है मगर तुम्हारी गिरफ्तारी में हम लोग शरीक जरूर हैं और वह गिरफ्तारी कला और बिमला के हुक्म से ही हुई थी।
खूब जानती हूँ मैं कि यहाँ की एक लौंडी ने तुम्हें कला और बिमला की खबर दी थी और कहा था कि कला और बिमला ने तुम्हें गिरफ्तार किया है। बेशक उसका यह कहना सच था मगर अफसोस, तुमने उसके साथ दगा किया। यह मैं इसीलिए कहती हूँ कि वह मेरी बहिन थी। अगर तुम उसके साथ दगा न करते तो वह जरूर तुम्हें पूरा-पूरा भेद बता देती। एक तौर पर उसने भण्डा फोड़ ही दिया मगर तुम्हारी सचाई जानने के लिए बहुत कुछ बचा भी रखा, अगर तुम अपना वादा पूरा करते तो वह जरूर बचा हुआ भेद भी बता देती और यह भी कह देती कि कला और बिमला कहाँ रहती हैं। मेरे कहने का मतलब यही है कि तुम उसकी सब बातों को सच न समझना।
गदा० : नहीं, बल्कि तुम्हारा मतलब यह है कि मुझे कुछ दो तो यहाँ का भेद बताऊँ।
कला : नहीं, ऐसा है तो नहीं मगर तुम जैसा चाहे खयाल कर सकते हो।
गदा० : (मुस्करा कर) ठीक है, अच्छा पहिले तुम मेरी उस बात का जवाब तो दो जो मैं पूछ चुका हूँ, पीछे और बातें की जायेंगी।
कला : कौन-सी बात का जवाब?
गदा० : यही कि उस रात को मुझसे इस ढंग की बातें क्यों की गईं जो कला और बिमला ही कर सकती हैं।
कला : मैं समझती हूँ कि तुम्हें ठीक तरह से पहिचान लेने ही के लिये उन्होंने इस ढंग की बातें की थीं क्योंकि हम लोगों को इस बात का निश्चय नहीं था कि वास्तव में तुम गदाधरसिंह ही हो और तुम्हारी गिरफ्तारी में धोखा नहीं हुआ।
गदा० : (मुस्कराते हुए) बात बनाने में तुम भी बड़ी तेज हो, यद्यपि मैं तुम्हारी बातों पर विश्वास नहीं कर सकता मगर कह सकता हूँ कि शायद तुम्हारा कहना ठीक हो। अच्छा अब यह कहो कि तुम यहाँ के भेद और कला तथा बिमला का हाल मुझे बता सकती हो या नहीं?
कला : नहीं।
गदा० : इसलिए कि मैंने तुम्हारी बहिन के साथ दगा किया, वास्तव में वह तुम्हारी बहिन थी!
कला : सिर्फ इसीलिए नहीं बल्कि इसलिये भी कि यह काम बड़ा ही नाजुक है और ऐसा करने के बाद मैं किसी तरह जीती नहीं रह सकती।
गदा० : क्यों तुम्हें मारने वाला कौन है? यहाँ जितने हैं वे सभी तुम्हारे अपने हैं इसके अतिरिक्त किसी को मालूम ही क्योंकर हो सकता है कि तुमने मुझे बताया है।
कला : यह बात छिपी नहीं रह सकती, यह घाटी तिलिस्मी है और यहाँ के हर पेड़-पत्तों और पत्थरों के ढोकों के भी कान हैं, मेरी बहिन ने इस बात का कुछ खयाल नहीं किया और इसीलिये आखिरकार जान से मारी गई।
गदा० : (आश्चर्य से) क्या तुम्हारी बहिन मारी गई?
कला : हाँ, क्यों मालकिन को तुम्हारी और उसकी बातों का किसी तरह पता लग गया।
गदा० : रात का समय था, सम्भव है किसी ने छिप कर सुन लिया हो। इसके अतिरिक्त और किसी तिलिस्मी बात का मैं कायल नहीं। इस समय दिन है चारों तरफ आँखें फैलाकर देखो किसी की सूरत दिखाई नहीं देती अस्तु मेरी-तुम्हारी बातें कोई सुन नहीं सकता, तुम बेखौफ होकर यहाँ का हाल इस समय मुझे बता सकती हो।
कला : नहीं, कदापि नहीं।
गदा० : (कमर से खंजर निकाल कर और दिखा कर) नहीं तो फिर इसी से तुम्हारी खबर ली जायगी!
कला : जो हो बताने के बाद भी तो मैं किसी तरह बच नहीं सकती, फिर ऐसी अवस्था में क्यों अपने मालिक को नुकसान पहुँचाऊँ? चाहे तिलिस्मी बातों का तुम्हें विश्वास न हो पर मैं समझती हूँ कि मेरे और तुम्हारे बीच जो-जो बातें हो रही हैं वह सब मेरी मालकिन सुन रही होंगी...
गदा० : (खिलखिलाकर हँस कर) ठीक है, तुम्हारी बातें...
कला : बेशक ऐसी ही है, अगर मैं इस घाटी के बाहर होती तो इस बात का खयाल न होता और यहाँ के भेद शायद बता देती।
गदा० : (मुस्कराते हुए) यही सही, तुम मुझे इस घाटी के बाहर ले चलो और यहाँ के भेद बता दो तो मैं तुम्हें...
कला : नहीं–नहीं, किसी तरह का वादा करने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि उस पर मुझे विश्वास न होगा, हाँ, यदि मुझे दलीपशाह के पास पहुँचा दो तो मैं यहाँ का पूरा-पूरा भेद तुम्हें बता सकती हूँ बल्कि हर तरह से तुम्हारी मदद भी कर सकती हूँ!
गदा० : (चौंक कर) दलीपशाह! दलीपशाह से और तुमसे क्या वास्ता?
कला : वे मेरे रिश्तेदार हैं और यहाँ से भाग कर मैं उनके यहाँ अपनी जान बचा सकती हूँ।
गदा० : अगर ऐसा ही है तो तुम स्वयं उसके पास क्यों नहीं चली जाती?
कला : पहिले तो मुझे यहाँ से भागने की कोई जरूरत ही नहीं, भागने का खयाल तो सिर्फ इसी सबब से होगा कि तुम्हें यहाँ के भेद बताऊँगी दूसरे यह कि आजकल न-जाने किस कारण से उन्होंने अपना मकान छोड़ दिया है और किसी दूसरी जगह जाकर छिप रहे हैं।
गदा० : अगर किसी दूसरी जगह छिप रहे हैं तो भला मुझे क्योंकर उनका पता लगेगा?
कला : तुम्हें उनका पता जरूर होगा क्योंकि तुम उनके साढ़ू और दोस्त भी हो।
गदा० : यह बात तुम्हें क्योंकर मालूम हुई?
कला : भला मैं दलीपशाह के नाते की होकर यह नहीं जानूँगी कि तुम उनके कौन हो।
गदा० : (आश्चर्य के साथ कुछ सोच कर) अगर तुम्हारी बात सच है तो तुम मेरी भी कुछ नातेदार होवोगी।
कला : जरूर ऐसा ही है, मगर यहाँ मैं इस बारे में कुछ न कहूँगी, दलीपशाह के मकान पर चलने ही से तुम्हें सब हाल मालूम हो जायगा तथा और भी कई बातें ऐसी मालूम होंगी जिन्हें जान कर तुम खुश हो जाओगे इन्हीं बातों का खयाल करके और तुम्हें अपना नजदीकी नातेदार समझ के मैं चाहती हूँ कि तुम्हें इस घाटी से बाहर कर दूँ और खुद भी भाग जाऊँ नहीं तो यहाँ रह कर तुम्हारी जान किसी तरह बच नहीं सकती और बिना मेरी मदद के तुम घाटी के बाहर भी नहीं जा सकते।
गदा० : (सोच कर) अगर ऐसा ही है तो तुम मेरी नातेदार होकर यहाँ क्यों रहती हो?
कला : यहाँ पर मैं इन सब बातों का कुछ भी जवाब न दूँगी ।
कला की बातें सुन कर गदाधरसिंह सोच और तरद्दुद में पड़ गया। वह यहाँ का भेद जानने के लिए अवश्य ही कला को तकलीफ देता या गुस्से में आकर शायद मार ही डालता मगर कला की बातों ने उसे उलझन में डाल दिया और वह सोच में पड़ गया कि अब क्या करना चाहिए।
वह जानता था बल्कि उसे विश्वास था कि बिना किसी की मदद के वह इस घाटी के बाहर नहीं निकल सकता और यहाँ फँसे रहना भी उसके लिए अच्छा नहीं चाहे वह किसी तरह की ऐयारी करके कितना ही उपद्रव मचा ले, अतएव वह बाहर निकल जाना बहुत पसन्द करता था और समझता था कि इत्तिफाक ही ने इस समय उसे मदद दिला दी है और अब इससे काम न लेना निरी बेवकूफी है।
मगर कला की बातों ने उसे चक्कर में डाल दिया था। यद्यपि वह दलीपशाह १ का पता जानता था मगर कई कारणों से उसके पास या सामने जाना अथवा कला को ले जाना पसन्द नहीं करता था। (१. यह नाम चन्द्रकान्ता सन्तति में आ चुका है।)
उधर कला से उसकी इच्छानुसार बात करने की उसे सख्त जरूरत थी क्योंकि उसे इस बात का शक हो रहा था कि अगर कला से दलीपशाह के पास ले जाने का वादा न करूँगा तो शायद यह मुझे इस खोह के बाहर न भी ले जायगी। वह कला को धोखा देने और कोरा वादा करने के लिए तैयार था मगर वह चाहता था कि कला मुझसे वादा करने के लिए कसम न खिलावे, क्योंकि असली सूरत में कसम खाकर मुँह फेर लेने की आदत अभी तक उसमें नहीं पड़ी थी और वह अपने को बहादुर समझता था।
गदाधरसिंह के दिल में ये बातें भी पैदा हो रही थीं कि इस घाटी के मालिक का पता लगाना चाहिए और यहाँ के भेदों को जानना चाहिए परन्तु उसने सोचा कि यहाँ कला और बिना किसी मददगार के रहकर मैं कुछ भी न कर सकूँगा। यहाँ रहने वाले बिलकुल ही सीधे-सादे मालूम नहीं होते और यद्यपि अभी तक यहाँ किसी मर्द की सूरत दिखाई न दी परन्तु औरतें भी यहाँ की ऐयारा ही जान पड़ती हैं। क्या यह औरत भी मुझसे ऐयारी के ढंग पर बातें कर रही है? सम्भव है कि ऐसा ही हो और मुझे इस घाटी के बाहर ले जाने के बहाने से यह किसी खोह या कन्दरा में फँसा कर पुनः कैद करा दे।
अभी तक तो मैंने इस बात की भी जाँच नहीं की कि इसकी सूरत असली है या बनावटी। खैर मैं अभी-अभी इस बात की भी जाँच कर लूँगा और इसके बाद जब इस घाटी के बाहर निकल जाने के लिए इसके साथ किसी खोह या सुरंग के अंदर घुसूँगा तो पूरा होशियार रहूँगा कि यह मुझसे दगा न करे, न इसे अपने आगे रहने दूँगा और न पीछे रहने दूँगा बल्कि इसका हाथ पकड़े रहूँगा या कमर में कमन्द बाँध कर थामे रहूँगा। इस खोह के बाहर निकल जाने पर मैं सब कुछ कर सकूँगा क्योंकि तब वहाँ का रास्ता भी देखने में आ जायगा, तब अपने दो-एक शागिर्दों को मदद के लिए साथ लेकर पुनः यहाँ आऊँगा और यहाँ रहने वालों से समझूँगा जिन्होंने मुझे गिरफ्तार किया था।
इत्यादि तरह-तरह की बातें गदाधरसिंह बहुत देर तक सोचता रहा और इसके बाद कला से बोला, ‘‘अच्छा मैं तुम्हें दलीपशाह के पास ले चलूँगा मगर तुम पानी से अपना मुँह धोकर मुझे विश्वास दिलाओ कि तुम्हारी सूरत बदली हुई नहीं है या तुम ऐयार नहीं हो और मुझे कोई धोखा नहीं दिया चाहतीं।’’
कला : हाँ-हाँ, मैं अपना चेहरा धोने के लिए तैयार हूँ, पानी दो।
गदा० : (अपने बटुए में से पानी की एक छोटी-सी बोतल निकाल कर और कला की ओर बढ़ाकर) लो यह पानी तैयार है।
कला ने गदाधरसिंह के हाथ से पानी लेकर अपना चेहरा धो डाला। उसके चेहरे पर किसी तरह का रंग चढ़ा हुआ तो था ही नहीं जो धोने से दूर हो जाता बल्कि एक प्रकार की झिल्ली चढ़ी हुई थी जिस पर पानी का कुछ भी असर नहीं हो सकता था, अस्तु गदाधरसिंह को विश्वास हो गया कि इसकी सूरत बदली हुई नहीं है। भूतनाथ ने उसके हाथ-पैर खोल दिए और घाटी के बाहर चलने के लिए कहा।
गदा० : क्या तुम इस दिन के समय मुझे यहाँ से बाहर ले जा सकती हो?
कला : हाँ, ले जा सकती हूँ।
गदा० : मगर तुम्हारे संगी-साथी किसी जगह से छिपे देख सकते हैं।
कला : अव्वल तो शायद ऐसा न होगा, दूसरे अगर कोई दूर से देखता भी होगा तो जब तक वह मेरे पास पहुँचेगा तब तक मैं तुम्हें लिए हुए इस घाटी के बाहर हो जाऊँगी, फिर मुझे बचा लेना तुम्हारा काम है।
गदा० : (जोश के साथ) ओह, घाटी के बाहर हो जाने पर फिर तुम्हारा कोई क्या बिगाड़ सकता है!
कला : तो बस फिर जल्दी करो, मगर हाँ एक बात तो रह ही गई।
गदा० : वह क्या?
कला : तुमने मुझसे इस बात की प्रतिज्ञा नहीं की कि दलीपशाह से मुलाकात करा दोगे।
गदा० : मैं तो पहले ही वादा कर चुका हूँ कि तुम्हें दलीपशाह के पास ले चलूँगा।
कला : वादा और बात है, प्रतिज्ञा और बात है, मैं इस बारे में तुमसे कसम खिला के प्रतिज्ञा करा लेना चाहती हूँ। तुम क्षत्रिय हो अस्तु खंजर, जिसे दुर्गा समझते हो, हाथ में लेकर प्रतिज्ञा करो कि वादा पूरा करोगे।
गदा० : (कुछ देर तक सोचने के बाद खंजर हाथ में लेकर) अच्छा लो मैं कसम खा कर प्रतिज्ञा करता हूँ कि तुम्हें दलीपशाह के घर पहुँचा दूँगा।
कला : हाँ, बस मेरी दिलजमयी हो गई।
इतना कह कर कला उठ खड़ी हुई और गदाधरसिंह को साथ लिए हुए पहाड़ी के नीचे उतरने लगी।
पाठकों को समझ रखना चाहिए कि इस सुन्दर घाटी से बाहर निकल जाने के लिए केवल एक ही रास्ता नहीं है बल्कि कई रास्ते हैं जिन्हें मौके-मौके समयानुसार ये लोग अर्थात् कला और बिमला काम में लाया करती हैं और इनका हाल किसी मौके पर आगे चल कर मालूम होगा। इस समय हम केवल उसी रास्ते का हाल दिखाते हैं जिससे गदाधरसिंह को साथ लिए हुए कला बाहर जाने वाली है।
कला पहाड़ी के कोने की तरफ दबती हुई नीचे उतरने लगी। धूप बहुत तेज हो चुकी थी और गरमी से उसे सख्त तकलीफ हो रही थी तथापि वह गौर से कुछ सोचती हुई पहाड़ी के नीचे उतरने लगी। जब करीब जमीन के पास पहुँच गई तो एक ऐसा स्थान मिला जहाँ जंगली झाड़ियाँ बहुतायत से थीं और वहाँ पत्थर का एक छोटा बुर्ज भी था जिस पर चढ़ने के लिए उसके अन्दर की तरफ छोटी-छोटी तीस या पैंतीस सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। उस बुर्ज के ऊपर लोहे की चौरुखी झण्डी लगी हुई थीं। अर्थात् लोहे के बनावटी बाँस पर लोहे के ही पत्तरों की बनी चौरुखी झण्डी इस ढंग से बनी हुई थी कि यह घुमाने से घूम सकती थी।
एक झण्डी का रंग सुफेद, दूसरी का स्याह, तीसरी का लाल और चौथी झण्डी का पीला था। इस समय पीले रंग वाली झण्डी का रुख बँगले की तरफ घूमा हुआ था। वहाँ पर खड़ी होकर कला ने गदाधरसिंह से कहा, ‘‘बस इसी जगह बाहर निकल जाने के लिए एक सुरंग है और यह बुर्ज उसकी ताली है अर्थात् दरवाजा खोलने के लिए पहिले मुझे इस बुर्ज के ऊपर जाना होगा अस्तु तुम इसी जगह खड़े रहो, मैं क्षण-भर के लिए ऊपर जाती हूँ।’’
गदा० : (कुछ सोच कर) तो मुझे भी अपने साथ लेती चलो, मैं देखूँगा कि वहाँ तुम क्या करती हो।
कला : (मुस्कराकर) तो तुम इस रास्ते का भेद जानना चाहते हो?
गदा० : हाँ बेशक और इसीलिए तो मैंने तुमसे दलीपशाह के पास पहुँचा देने का वादा किया है।
कला : अच्छा चलो।
गदाधरसिंह कला के साथ उस बुर्ज के अन्दर गया, उसने देखा कि कला ने ऊपर चढ़ कर उस झण्डी के बाँस को जो बुर्ज के बीचोंबीच से छत फोड़ कर अन्दर निकला हुआ था घुमा दिया। बस इसके अतिरिक्त उसने और कुछ भी नहीं किया और बुर्ज के नीचे उतर आई। बाहर निकलने पर गदाधरसिंह ने देखा कि जिस रुख पर पीले रंग की झण्डी थी, अब उस रुख पर लाल रंग की झण्डी है, मगर इस काम से और इस सुरंग के दरवाजे से क्या संबंध हो सकता है सो उसकी समझ में कुछ न आया। कुछ गौर करने पर यकायक खयाल आया कि ये झण्डियाँ यहाँ रहने वालों के लिए इशारे का काम करती हों तो कोई ताज्जुब की बात नहीं है।
वह सोचने लगा कि निःसन्देह यह औरत बड़ी चालाक और धूर्त है, पहिले भी इसी ने मुझ पर वार किया था, बेहोशी की दवा भरा हुआ तमंचा इसी ने तो मुझ पर चलाया था और इस समय भी इसी से मुझे पाला पड़ा है, देखना चाहिए यह क्या रंग लाती है। इस समय भी अगर यह मेरे साथ दगा करेगी तो मैं इसे दुरुस्त ही करके छोड़ूँगा इत्यादि।
गदाधरसिंह को सोच और विचार में पड़े हुए देख कर कला भी समझ गई कि वह मेरे ही विषय में चिन्ता कर रहा है और इसे इस झण्डी के घुमाने पर शक हो गया है अस्तु उसने शीघ्रता की मुद्रा दिखाते हुए गदाधरसिंह से कहा, ‘‘बस आओ और जल्दी से खोह के अन्दर घुसो क्योंकि पहिला दरवाजा खुल गया है।’’
बुर्ज के नीचे उतर जाने के बाद गदाधरसिंह को साथ लिए हुए कला यहाँ से पश्चिम तरफ ढालवीं जमीन पर चलने लगी और लगभग तीस या चालीस कदम चलने के बाद ऐसी जगह पहुंची जहाँ चार-पाँच पेड़ पारिजात के लगे हुए थे और उनके बीच में जंगली लताओं से छिपा हुआ एक छोटा दरवाजा था।
कला ने गदाधरसिंह की तरफ देख के कहा, ‘‘यही उस खोह का दरवाजा है जिस राह से हम लोगों का आना-जाना होता है, अब मैं इसके अन्दर घुसती हूँ, तुम पीछे चले आओ।’’
गदा० : जहाँ तक मेरा खयाल है मैं कह सकता हूँ कि इस खोह के अन्दर जरूर अन्धकार होगा, कहीं ऐसा न हो कि तुम आगे चलकर गायब हो जाओ और मैं अंधेरे में तुम्हें टटोलता, पुकारता और पत्थरों से ठोकरें खाता हुआ परेशानी में फँस जाऊँ, क्योंकि नित्य आने-जाने के कारण यह रास्ता तुम्हारे लिए खेल हो रहा है, इसके अतिरिक्त यह रास्ता एकदम सीधा कभी न होगा, जरूर रास्ते में गिरह पड़ी होगी, या यों कहा जाय कि इसके बीच में दो-एक तिलिस्मी दरवाजे जरूर लगे होंगे।
कला : नहीं-नहीं, तुम बेखौफ मेरे पीछे चले आओ, यह रास्ता बहुत साफ है।
गदा० : नहीं, मैं ऐसा बेवकूफ नहीं हूँ, बेहतर होगा कि तुम अपनी कमर में मुझे कमन्द बाँधने दो, मैं उसे पकड़े हुए तुम्हारे पीछे-पीछे चला चलूँगा।
कला : अगर तुम्हारी यही मर्जी है तो मुझे मंजूर है।
आखिर ऐसा ही हुआ, गदाधरसिंह ने कला की कमर में कमन्द बाँधी और उसे आगे चलने के लिए कहा और उस कमन्द का दूसरा सिरा पकड़े हुए पीछे-पीछे आप रवाना हुआ। गदाधरसिंह को इस बात का बहुत खयाल था कि सुरंग की राह से आने-जाने का रास्ता किसी तरह मालूम कर ले, मगर कला किसी दूसरी ही फिक्र में थी, वह यह नहीं चाहती थी कि इसी सुरंग के अन्दर भूतनाथ अर्थात् गदाधरसिंह को फँसा कर मार डाले, इस समय उसे इस सुरंग से निकाल देना ही वह पसन्द करती थी, अस्तु वह धीरे-धीरे सुरंग के अन्दर से रवाना हुई।
पन्द्रह या बीस कदम आगे जाने के बाद सुंरग में एकदम अन्धकार मिला इसलिए गदाधरसिंह को टटोल-टटोलकर चलने की जरूरत पड़ी मगर कला तेजी के साथ कदम बढ़ाये चली जा रही थी और एक तौर पर गदाधरसिंह को खैंचे लिए जाती थी।
कला : अब तुम जल्दी चलते क्यों नहीं? रास्ता बहुत चलना है और तुम्हारी सताई हुई प्यास के मारे मैं बेचैन हो रही हूँ, इस खोह के बाहर निकलकर तब पानी पीऊँगी, और तुम्हारा यह हाल है कि चींटी की तरह कदम बढ़ाते हो, मेरे पीछे-पीछे आने में भी तुम्हारी यह दशा है, तुम कैसे ऐयार हो!
गदा० : मालूम होता है कि मुझे आज तुमसे भी कुछ सीखना पड़ेगा, मेरी ऐयारी में जो कुछ कसर थी उसे अब कदाचित् तुम लोग ही पूरा करोगी।
कला : वास्तव में ऐसी ही बात है, देखो यहाँ एक दरवाजा आया है, जरा संभल कर चौखट लाँघना नहीं ठोकर खाओगे।
उसी समय किसी तरह के खटके की आवाज आई और मालूम हुआ कि दरवाजा खुल गया। गदाधरसिंह बहुत होशियारी से इस नीयत से हाथ बढ़ा कर टटोलता हुआ आगे बढ़ा कि दरवाजे का पता लगावे और मालूम करे कि वह कैसा है या किस तरह खुलता है मगर चौखट लाँघ जाने पर भी जब इस बात का कुछ पता न लगा तब उसने चिढ़ कर कला से कहा, ‘‘क्या खाली चौखट ही थी या यहाँ तुमने दरवाजा खोला है?’’
कला : इस बात को जानने की तुम्हें कोई जरूरत नहीं, मैंने तुमसे यह वादा नहीं किया है कि यहाँ के सब भेद बता दूँगी।
गदा० : मैं यहाँ के भेद जानना नहीं चाहता मगर इस सुरंग का हाल तो तुम्हें बताना ही पड़ेगा।
कला : इस भरोसे मत रहना, मैं वायदे के मुताबिक तुम्हें इस जगह से बाहर कर दूँगी और तुम प्रतिज्ञानुसार मुझे दलीपशाह के पास पहुँचा देना।
गदा० : क्या तुम नहीं जानती कि अभी तक तुम मेरे कब्जे में हो और मैं जितना चाहे तुम्हें सता सकता हूँ?
कला : तुम्हारे ऐसे बेवकूफ ऐयार के मुँह से ऐसी बात निकले तो कोई ताज्जुब की बात नहीं है! अजी तुम यही गनीमत समझो कि इस घाटी के अन्दर हम लोगों ने तुम्हें किसी तरह का दुःख नहीं दिया क्योंकि हम लोग तुम्हारे साथ कोई और ही सलूक किया चाहती हैं और किसी दूसरे ढंग पर बदला लेने का इरादा है।
तुम्हारी भूल है कि तुम मुझे अपने कब्जे में समझते हो, अगर अपनी खैरियत चाहते हो तो चुपचाप चले आओ।
कला की ऐसी बातें सुन कर गदाधरसिंह झल्ला उठा और उसने क्रोध के साथ कमन्द खैंची, उसे आशा थी की कला इसके साथ खिंचती चली आवेगी मगर ऐसा न हुआ और खाली कमन्द खिंच कर गदाधरसिंह के हाथ में आ गई, क्योंकि रास्ता चलते-चलते कला ने कमन्द खोल डाली थी, इसलिए कि उसके हाथ खुले थे, गदाधरसिंह ने इस खयाल से उसके हाथ नहीं बाँधे थे और कला ने भी ऐसा ही बहाना किया था कि सुरंग के अन्दर कई कठिन दरवाजे खोलने पड़ेंगे।
जिस समय खाली कमन्द खिंच कर गदाधरसिंह के हाथ में आ गई उसका कलेजा दहल उठा और वह वास्तव में बेवकूफ-सा बन कर चुपचाप खड़ा रह गया मगर साथ ही कला की आवाज आई—‘‘कोई चिन्ता मत करो, चुपचाप कदम बढ़ाते चले आओ और समझ लो कि यहाँ भी तुम्हें बहुत कुछ सीखना पड़ेगा।’’
एक खटके की आवाज आई और आहट से उसी समय यह भी मालूम हो गया कि जिस चौखट को लाँघ कर वह आया था उसमें किसी तरह का दरवाजा था जो उसके इधर जाने के बाद आप-से-आप बन्द हो गया। पीछे की तरफ हट कर और हाथ बढ़ा कर देखा तो अपना खयाल सच पाया और विश्वास हो गया कि अब उसका पीछे की तरफ लौटना असम्भव हो गया।
वहाँ की अवस्था और कला की बातों से गदाधरसिंह का गुस्सा बराबर बढ़ता ही गया और इस बात की उसे बहुत ही शर्म आई कि एक साधारण औरत ने उसे उल्लू बना दिया। मगर वह कर ही क्या सकता था, उस अनजान सुरंग और अन्धकार में उसका क्या बस चल सकता था? परन्तु इतने पर भी उसने मजबूर होकर कला के पीछे-पीछे टटोलते हुए जाना पसन्द नहीं किया।
कई सायत तक चुपचाप खड़े रह कर कुछ सोचने के बाद उसने अपने बटुए में से सामान निकाल कर रोशनी की और आँखें फाड़ कर चारों तरफ देखने लगा।
उसने देखा कि यह सुरंग बहुत चौड़ी और कुदरती ढंग से बनी हुई है तथा ऊँचाई भी किसी तरह कम नहीं है, तीन आदमी एक साथ खड़े होकर उसमें बखूबी चल सकते हैं, मगर यहाँ पर इस बात का पता नहीं लगता कि यह सुरंग कितनी लम्बी है क्योंकि आगे की तरफ बिलकुल अन्धकार मालूम होता था। पीछे की तरफ देखा तो दरवाजा बन्द पाया जिसमें किसी तरह की कुण्डी, खटके या ताले का निशान नहीं मालूम होता था।
गदाधरसिंह हाथ में बत्ती लिए हुए आगे की तरफ कदम बढ़ाये रवाना हुए। लगभग डेढ़ सौ कदम जाने के बाद उसे पुनः दूसरी चौखट लाँघने की जरूरत पड़ी। उसके पार हो जाने के बाद यह दरवाजा भी आप-से-आप बन्द हो गया।
उसने अपनी आँखों से देखा कि लोहे का बहुत बड़ा तख्ता एक तरफ से निकल कर रास्ता बन्द करता हुआ दूसरी तरफ जाकर हाथ भर तक दीवार के अन्दर घुस गया, क्योंकि वह पीछे फिर कर देखता हुआ आगे बढ़ा था। वह पुनः आगे की तरफ बढ़ा मगर अब क्रमशः सुरंग तंग और नीची मिलने लगी। उसे कला का कहीं पता न लगा जिसे गिरफ्तार करने के लिए वह दाँत पीस रहा था।
कई सौ कदम चले जाने के बाद पिछले दो दरवाजों की तरह उसे और भी तीन दरवाजे सामने पड़े और तब वह एक ऐसे स्थान पर पहुँचा जहाँ दो तरफ को रास्ता फूट गया था। वहाँ पर वह अटक गया और सोचने लगा कि किस तरफ जाय। कुछ ही सायत बात एक तरफ से आवाज आई, ‘‘अगर सुरंग के बाहर निकल जाने की इच्छा हो तो दाहिनी तरफ चला जा और अगर यहाँ के रहनेवालों की ऐयारी का इम्तहान लेना हो और किसी को गिरफ्तार करने की प्रबल अभिलाषा हो तो बाईं तरफ का रास्ता पकड़!’’
गदाधरसिंह चौकन्ना होकर उस तरफ देखने लगा जिधर से आवाज आई थी मगर किसी आदमी की सूरत दिखाई न पड़ी। आवाज पर गौर करने से विश्वास हो गया कि यह उसी औरत (कला) की आवाज है जिसकी बदौलत वह यहाँ तक आया था।
आवाज किस तरफ से आई या आवाज देने वाला कहाँ है और वहाँ तक पहुँचने की क्या तरकीब हो सकती है इत्यादि बातों पर गौर करने के लिए भी गदाधरसिंह वहाँ न अटका और गुस्से के मारे पेचोताब खाता हुआ दाहिनी तरफ वाली सुंरग में रवाना हुआ। थोड़ी देर तक तेजी के साथ चल कर वह सुरंग से बाहर निकल आया और ऐसे स्थान पर पहुंचा जहाँ बहुत सुन्दर और सुहावने बेल तथा पारिजात के पेड़ लगे हुए थे और हरी-हरी लताओं से सुरंग का मुँह ढका हुआ था।
जहाँ पर गदाधरसिंह खड़ा था उसके दाहिनी तरफ कई कदम की दूरी पर सुन्दर झरना था जो पहाड़ की ऊँचाई से गिरता हुआ तेजी के साथ बह रहा था। यद्यपि इस समय उसके जल की चौड़ाई चार या पाँच हाथ से ज्यादे न थी मगर दोनों तरफ के कगारों पर ध्यान देने से विश्वास होता था कि मौसम पर जरूर चश्मा छोटी-मोटी नदी का रूप धारण कर लेता होगा।
गदाधरसिंह ने देखा कि उस चश्में का जल मोती की तरह साफ और निथरा हुआ बह रहा है और उसे उस पार वही औरत (कला) जिसने उसे धोखा दिया था हाथ में तीर-कमान लिए खड़ी उसकी तरफ ताक रही है। वह अकेली नहीं है बल्कि और भी चार औरतें उसी की तरह हाथ में तीर-कमान लिए उसके पीछे हिफाजत के खयाल में खड़ी हैं।
गदाधरसिंह क्रोध से भरा हुआ लाल आँखों से उस औरत (कला) की तरफ देखने लगा और कुछ बोलना ही चाहता था कि सामने से और भी दो आदमी आते हुए दिखाई दिये जिन्हें नजदीक आने पर भी उसने नहीं पहिचाना मगर उसे खयाल हुआ कि इन दोनों ने ऐयारी के ढंग पर अपनी सूरतें बदली हुई हैं।
ये दोनों आदमी गुलाबसिंह और प्रभाकरसिंह थे जिनकी सूरत इस समय वास्तव में बदली हुई थी। प्रभाकरसिंह ने निगाह पड़ते ही कला को पहचान लिया क्योंकि उसी बदली हुई सूरत में कला और बिमला को देख चुके थे, हाँ, कला ने प्रभाकरसिंह को नहीं पहचाना जो इस समय भी सुन्दर सिपाहियाना ठाठ में सजे हुए थे।
कला को इस जगह ऐसी अवस्था में देख कर उन्हें आश्चर्य हुआ और वे उसे कुछ पूछना ही चाहते थे कि उसकी निगाह गदाधरसिंह पर पड़ी जो चश्में के उस पार की पत्थर की चट्टान पर खड़ा इन लोगों की तरफ देख रहा था।
प्रभाकरसिंह ने इस ढंग पर अपनी सूरत बदली हुई थी कि उन्हें यकायक पहिचानना बड़ा कठिन था मगर एक बँधे हुए इशारे से उन्होंने कला पर अपने को प्रकट कर दिया और यह बतला दिया कि जो आदमी मेरे साथ है वह मेरा सच्चा खैरख्वाह गुलाबसिंह है।
गुलाबसिंह का हाल कला को मालूम था क्योंकि वह उसकी तारीफ इन्दुमति से सुन चुकी थी और जानती थी कि ये प्रभाकरसिंह के विश्वासपात्र हैं इसलिए इनसे कोई बात छिपाने की जरूरत नहीं है अस्तु पूछने पर उसने अपने साथ वाली औरतों को अलग करके सब हाल अपना और भूतनाथ का साफ-साफ बयान कर दिया जिसे सुनते ही प्रभाकरसिंह और गुलाबसिंह हँस पड़े।
प्रभाकर : वास्तव में तुम बेतरह इसके हाथ फँस गई थीं मगर खूब ही चालाकी से अपने को बचाया!
गुलाब० : (प्रभाकरसिंह की तरफ देख के) यद्यपि गदाधरसिंह इनका कुसूरवार है और आजकल उसने अजीब तरह का ढंग पकड़ रखा है तथापि मैं कह सकता हूँ कि गदाधरसिंह ने इन्हें पहिचाना नहीं, अगर पहिचान लेता तो कदापि इनके साथ बेअदबी का बर्ताव न करता।
कला : (गुलाबसिंह से) आप जो चाहें कहें क्योंकि वह आपका दोस्त है मगर हम लोगों को उस पर कुछ भी विश्वास नहीं है। (प्रभाकरसिंह से) मालूम होता है कि हम लोगों का हाल आपने इनसे कहा दिया है।
प्रभाकर० : हाँ, बेशक ऐसा ही है मगर तुम लोगों को इन पर विश्वास करना चाहिए क्योंकि ये मेरे सच्चे सहायक, हितैषी और दोस्त हैं, तुम लोगों को भी इनसे बड़ी मदद मिलेगी।
कला : ठीक है और मैं जरूर इन पर विश्वास करूँगी क्योंकि इनका पूरा-पूरा हाल बहिन इन्दुमति से सुन चुकी हूँ, यद्यपि ये गदाधरसिंह के दोस्त हैं और हम लोग उनके साथ दुश्मनी का बर्ताव कर रहे हैं।
गुलाब० : (कला से) यद्यपि गदाधरसिंह मेरा दोस्त है मगर (प्रभाकरसिंह की तरफ बताकर इनके मुकाबले में मैं उस दोस्ती की कुछ भी कदर नहीं करता।
इनके लिए मैं उसी को नहीं बल्कि दुनिया के हर पदार्थ को जिसे मैं प्यार करता हूँ छोड़ देने के लिए तैयार हूँ। अच्छा जाने दो इस समय पर इन बातों की जरूरत नहीं, पहिले उस (गदाधरसिंह) से बातें करके उसे बिदा कर लो फिर हम लोगों से बातें होती रहेंगी। हाँ, यह तो बताओ कि जब तुमने इसे गिरफ्तार ही कर लिया था तो फिर मार क्यों नहीं डाला?
कला : हम लोग इसे मार डालना पसन्द नहीं करतीं बल्कि यह चाहती हैं कि जहाँ तक हो सके इसकी मिट्टी पलीद करें और इसे किसी लायक न छोड़ें। यह किसी के सामने मुँह दिखाने के लायक न रहे बल्कि आदमी की सूरत देख कर भागता फिरे, और इसके माथे पर कलंक का ऐसा टीका लगे कि किसी के छुड़ाये न छूट सके और यह घबड़ा कर पछताता हुआ जंगल-जंगल छिपता फिरे।
गुलाब० : बेशक यह बहुत बड़ी सजा है, अच्छा तुम उससे बात करो।
गदाधरसिंह दूर खड़ा हुआ इन लोगों की तरफ बराबर देख रहा था मगर इन लोगों की बातें उसे कुछ भी सुनाई नहीं देती थीं और न वह हाव-भाव ही से कुछ समझ सकता था, हाँ इतना जानता था कि अब वह कला का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता।
कला : (कुछ आगे बढ़ कर ऊँची आवाज में गदाधरसिंह से) अब तो तुम इस घाटी के बाहर निकल आए, मैंने जो कुछ वादा किया था सो पूरा हो गया अब तुम मुझे दलीपशाह के पास ले चल कर अपना वादा पूरा करो।
गदा० : (कला की तरफ बढ़ कर) बेशक तुम्हारी ऐयारी मुझ पर चल गई और मैं बेवकूफ बन गया। मैं यह भी खूब समझता हूँ कि दलीपशाह से मुलाकात करने की तुम्हें कोई जरूरत न थी, वह केवल बहाना था, और न अब तुम मेरे साथ दलीपशाह के पास जा ही सकती हो। अस्तु कोई चिन्ता नहीं, तुम मेरे हाथ से निकल गईं और मैं तुम्हारे पंजे से छूट गया। अच्छा अब मैं जाता हूँ मगर कहे जाता हूँ कि तुम लोग व्यर्थ ही मुझसे दुश्मनी करती हो। दयारामजी के विषय में जो कुछ तुम लोगों ने सुना है या जो कुछ तुम लोगों का खयाल है वह बिल्कुल झूठ है, वह मेरे सच्चे प्रेमी थे और मैं अभी तक उनके लिए रो रहा हूँ।
यदि जमना और सरस्वती वास्तव में जीती हैं और तुम लोग उनके साथ रहती हो तो जाकर कह देना कि गदाधरसिंह तुम लोगों के साथ दुश्मनी कदापि न करेगा, यद्यपि तुम्हारा हाल जानने के लिए वह तुम्हारे आदमियों को दुख दे और सतावे तो हो सकता है मगर वह तुम दोनों को कदापि दुख न देगा। तुम यदि इच्छा हो तो गदाधरसिंह को सता लो, उसे तुम्हारे लिए जान दे देने में भी कुछ उज्र न होगा।
इतना कह कर भूतनाथ वहाँ से पलट पड़ा और देखते-देखते नजरों से गायब हो गया।
गुलाबसिंह को बाहर छोड़ कर प्रभाकरसिंह कला के साथ घाटी के अन्दर चले गये और गुलाबसिंह से कह गए कि तुम इसी जगह ठहर कर मेरा इन्तजार करो, इन्दुमति तथा बिमला से मिलकर आता हूँ तो चुनार की तरफ चलूँगा क्योंकि जब तक शिवदत्त से बदला न ले लूँगा तब तक मेरा मन स्थिर न होगा।
संध्या हो चुकी थी जब प्रभाकरसिंह लौट कर गुलाबसिंह के पास आए और दोनों आदमी धीरे-धीरे बातचीत करते हुए चुनारगढ़ की तरफ रवाना हुए।
इन दोनों को इस बात की कुछ भी खबर नहीं है कि भूतनाथ इनका पीछा किये चला आ रहा है और चाहता है कि इन दोनों को किसी तरह पहिचान ले, इन दोनों के खयाल से भूतनाथ उसी समय कला के सामने ही चला गया था मगर वास्तव में वह थोड़ी दूर जाकर छिप रहा था और अब मौका पाकर इन दोनों के पीछे-पीछे छिपता हुआ रवाना हुआ।
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