मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 1 भूतनाथ - खण्ड 1देवकीनन्दन खत्री
|
10 पाठकों को प्रिय 348 पाठक हैं |
भूतनाथ - खण्ड1 पुस्तक का ई-संस्करण
तीसरा बयान
क्या भूतनाथ को कोई अपना दोस्त कह सकता था? क्या भूतनाथ के दिल में किसी की मुहब्बत कायम रह सकती थी! क्या भूतनाथ किसी के एहसान का पाबंद रह सकता था? क्या भूतनाथ पर किसी का दबाव पड़ सकता था? क्या भूतनाथ पर कोई भरोसा रख सकता था?
इसका जवाब देना बहुत कठिन है, जो गुलाबसिंह भूतनाथ को अपना दोस्त कहता था आज वही गुलाबसिंह भूतनाथ पर भरोसा न करता और इसी तरह भूतनाथ भी उसे अपना दोस्त नहीं समझता। जिस प्रभाकरसिंह की मदद के लिए भूतनाथ कमर बाँध कर तैयार हुआ था आज उसी प्रभाकरसिंह पर ऐयारी का वार करके इन्दुमति को सताने के लिए वह तैयार हो रहा है। सूरत बदले हुए प्रभाकरसिंह और गुलाबसिंह को यद्यपि भूतनाथ ने पहिचाना न था मगर उसे किसी तरह का शक जरूर हो गया था और यही जाँच करने के लिए उसने इन दोनों का पीछा किया था। रात पहर भर से ज्यादे जा चुकी थी।
गुलाबसिंह और प्रभाकरसिंह आपस में बातें करते हुए चुनारगढ़ की तरफ जा रहे थे। वे दोनों इस विचार में थे कि कोई गाँव या बस्ती आ जाए तो वहाँ थोड़ी देर के लिए आराम करें। कुछ दूर और जाने के बाद वे दोनों ऐसी जगह पहुँचे जहाँ जंगली पेड़ बहुत ही कम होने के कारण वह जमीन मैदान का नमूना बन रही थी और पगडण्डी रास्ते से कुछ हट कर दाहिनी तरफ एक सुन्दर कुआँ भी था जिसे देख इन दोनों की इच्छा हुई कि इसी कुएँ पर बैठ कर देर आराम कर ले तब आगे बढ़े।
कुएँ के पास जाकर देखा कि एक आदमी गमछा बिछाए उसी जगह पर आराम कर रहा है और डोरी तथा लोटा उसके सिरहाने की तरफ पड़ा हुआ है, गुलाबसिंह ने प्रभाकरसिंह की तरफ देख कर कहा, ‘‘कुछ देर के लिए यहाँ आराम कीजिए, पानी पीजिए, और हाथ-मुँह धो ठंडे होकर सफर की हरारत मिटाइये!’’ इसके जवाब में प्रभाकरसिंह ने कहा, ‘‘पानी पीने के लिए हम लोगों के पास लोटा-डोरी तो है नहीं, हाँ आगे किसी ठिकाने पर चलें तो सभी कुछ हो सकता है, बल्कि वहाँ खाने–पीने का भी सुभीता होगा!’’
इन दोनों की बातें सुन कर वह मुसाफिर जो कुएँ की जगह पर लेटा हुआ था उठ बैठा और बोला, ‘‘हाँ हाँ आप क्षत्री जान पड़ते हैं और मैं भी और गौड़ ब्राहाण हूँ, अभी-अभी यह लोटा माँज कर मैंने रखा है पानी खींच लीजिए।’’
‘‘अति उत्तम’’ कह कर गुलाबसिंह ने लोटा-डोरी उठा ली और प्रभाकरसिंह उसी जगत पर बैठ गये।
गुलाबसिंह ने कुएँ से जल निकाला और दोनों दोस्तों ने हाथ-मुँह धोया। इसके बाद पुनः जल निकाल कर दोनों ने थोड़ा-थोड़ा पीया फिर लोटा माँज मुसाफिर के सिरहाने उसी जगह रख दिया।
गुलाबसिंह यद्यपि होशियार आदमी थे मगर इस जगह एक मामूली बात में भूल कर गये, उन्हें उचित था कि अपने हाथ से लोटा माँज कर तब जलपान करते या मुँह-हाथ धोते, मगर ऐसा न करने से दोनों ही को तकलीफ उठानी पड़ी।
वह आदमी जो कुएँ पर पहिले ही से आराम कर रहा था वास्तव में भूतनाथ था, वह इन दोनों की आहट लेता हुआ इनसे कुछ ही दूर आगे-आगे सफर कर रहा था बल्कि यों कहना चाहिए कि कभी आगे, कभी पीछे, कभी पास कभी दूर जब जैसा मौका पाता उसी तरह उन दोनों के साथ सफर कर रहा था और इस समय पहिले से यहाँ आकर इन लोगों को धोखा देने के लिए अटका हुआ था।
प्रभाकरः (गुलाबसिंह से) यह कुआँ है तो अच्छे मौके पर मगर इसका पानी अच्छा नहीं है।
गुलाब : हाँ पानी में कुछ बदबू मालूम पड़ती है, मगर यह बात पहिले न थी, मैं कई दफे इस कुएँ का पानी पी चुका हूँ, यहाँ चार-चार कोस के घेरे में यही एक कुआँ है।
इसके बाद दोनों आदमी कुछ देर तक मामूली बातचीत करते रहे क्योंकि अनजान मुसाफिर पास होने के ख्याल से मतलब की भेद की कोई बात नहीं कर सकते थे, इसके बाद वे दोनों चादर बिछा कर लेट गये और बात-की-बात में बेखबर होकर खर्राटे लेने लगे, उस समय भूतनाथ अपनी जगह से उठा और दोनों के पास आकर गौर से देखने लगा कि अभी ये लोग बेहोश हुए हैं या नहीं।
भूतनाथ ने अपने लोटे के अन्दर बेहोशी की दवा लगा दी थी जिसका कुछ हिस्सा पानी में मिलघुल कर इनके पेट में उतर गया था और इसी दवा की महक इन दोनों की नाक में गई थी जिसका असल मतलब न समझ कर इन्होंने पानी की शिकायत की थी।
जब भूतनाथ ने देखा कि वे दोनों अच्छी तरह बेहोश हो गये तब अपने बटुए में से सामान निकाल कर उसने रोशनी की, इसके बाद कुएँ में से पानी निकाला और रूमाल तर करके इन दोनों का चेहरा साफ किया, उस समय अच्छी तरह देखने से भूतनाथ का शक जाता रहा और उसने पहिचान लिया कि वे ये दोनों गुलाबसिंह और प्रभाकरसिंह हैं।
गुलाबसिंह ऐयार नहीं था मगर अकल का तेज और होशियार आदमी था तथा ऐयारों के साथ दोस्ती रहने के कारण कुछ-कुछ ऐयारी का काम भी कर सकता था और इसी सबब से उसने अपनी और प्रभाकरसिंह की सूरत मामूली ढंग पर बदल ली थी।
भूतनाथ ने इन दोनों को अच्छी तरह पहिचान लेने के बाद गुलाबसिंह की सूरत पुनः उसी तरह की बना दी और प्रभाकरसिंह को पीठ पर लाद कर अपने घर का रास्ता लिया।
तेजी के साथ चल कर दो ही घण्टे में वह अपनी घाटी के मुहाने पर जा पहुँचा जहाँ रहता था तथा जो कला और बिमला की घाटी के साथ सटी हुई थी।
वहाँ उसके शागिर्द लोग उसका इन्तजार कर रहे होंगे यह सोच भूतनाथ तेजी से कदम बढ़ाता हुआ उस सुरंग के अन्दर घुसा।
सुरंग के अन्दर घुसने के बाद वह उसी चौमुहानी पर पहुँचा जिसका जिक्र ऊपर कई दफे आ चुका है। इसके बाद यह अपनी घाटी की तरफ घूमा और उस सुरंग में घुसा मगर दो ही चार कदम आगे जाने के बाद दरवाजा बन्द देख उसे बड़ा ही ताज्जुब हुआ, उसका दिमाग हिल गया और हिम्मती होने पर भी वह एक दफे काँप उठा।
प्रभाकरसिंह की गठरी उसने जमीन पर रख दी और बटुए में से सामान निकाल रोशनी करने के बाद अच्छी तरह गौर करके देखने लगा कि रास्ता क्यों कर बन्द हो गया, मगर उसकी समझ में कुछ भी न आया। उसने सिर्फ इतना देखा कि लोहे का एक बहुत बड़ा तख्ता सामने खड़ा हुआ है जिसके कारण यह बिल्कुल नहीं जान पड़ता कि उसका घर किस तरफ है, उसने दरवाजा खोलने की बहुत कोशिश की और बड़ी देर तक हैरान रहा मगर सब बेकार हुआ।
यह सोच कर उसकी आँखों में आँसू भर आये कि हाय उसके कई शागिर्द जो इस घाटी के अन्दर हैं सब बेचारे भूख के मारे तड़प कर मर जायँगे, क्योंकि इस रास्ते के सिवाय बाहर निकलने के लिए उन्हें कोई दूसरा रास्ता न मिलेगा।
प्रभाकरसिंह की गठरी लिए भूतनाथ घबड़ाया हुआ सुरंग के बाहर निकल आया और एक घने पेड़ के नीचे बैठ कर सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिए? इस समय यहाँ मेरा कोई शागिर्द या नौकर भी नहीं मिल सकता जिससे किसी तरह का काम निकाला जाय जिस खयाल से प्रभाकरसिंह को ले आया था वह काम भी न हुआ हाय मेरे आदमी एकाएक जहन्नुम में मिल गये और मैं उनकी कुछ भी मदद न कर सका!
मालूम होता है कि यहाँ का कोई सच्चा जानकार आ पहुँचा जिसने इस घाटी पर कब्जा कर लिया, क्या दयाराम की दोनों स्त्रियाँ तो यहाँ नहीं आ पहुँची जो पड़ोस में रहती हैं? अगर ऐसा हो भी तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि बगल वाली घाटी जिसमें वे दोनों रहती हैं कोई तिलिस्म मालूम पड़ती है और यह घाटी उससे कुछ सम्बन्ध रखती हो तो आश्चर्य ही क्या है मैं नहीं चाहता था कि उन दोनों को सताऊँ या किसी तरह की तकलीफ दूँ मगर दोस्तों और शागिर्दों को छु़ड़ाने के लिए अब मुझे सभी कुछ करना पड़ेगा।
|