मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 1 भूतनाथ - खण्ड 1देवकीनन्दन खत्री
|
10 पाठकों को प्रिय 348 पाठक हैं |
भूतनाथ - खण्ड1 पुस्तक का ई-संस्करण
सातवाँ बयान
जमानिया वाला दलीपसिंह का मकान बहुत ही सुन्दर और अमीराना ढंग पर गुजारा करने लायक बना हुआ है। उसमें जनाना और मर्दाना किला इस ढंग से बना है कि भीतर से दरवाजा खोलकर जब चाहे एक कर लें और भीतर रास्ता बन्द कर दिया जाय तो एक को दूसरे से कुछ भी संबंध न मालूम पड़े, यहाँ तक कि अगर मर्दाने मकान में कोई मेहमान आकर टिके तो उसे यकायक इस बात का पता भी न लगे कि जनाने लोग कहाँ रहते हैं और उस तरफ आने-जाने के लिये इस तरफ से कोई रास्ता भी है या नहीं।
इस मकान के सामने एक छोटा-सा सुन्दर नजरबाग बना हुआ था और उसके सामने अर्थात् पूरब तरफ ऊँची दीवार और फाटक था। मकान के बाईं तरफ लम्बा खपरैल था जिसका एक सिरा तो मकान के साथ सटा हुआ था और दूसरा सिरा सामने अर्थात् फाटकवाली दीवार के साथ। उसके बीच में छोटे-बड़े कई दालान और कोठरियाँ बनी हुई थीं जिसमें दलीपशाह के खिदमतगार और सिपाही लोग रहा करते थे। इसी तरह मकान के दाहिनी तरफ इस सिरे से लेकर उस सिरे तक कुछ ऐसी इमारतें बनी हुई थीं जिनमें कई गृहस्थियों का गुजारा हो सकता था और उनमें दलीपशाह के शागिर्द ऐयार लोग रहा करते थे, इस ढंग पर वह नजरबाग बीच में अर्थात् चारों तरफ से घिरा हुआ था। सरसरी तौर पर खयाल करने से भी साफ मालूम होता था कि दलीपशाह बहुत ही अमीराना ढंग पर रह कर जिन्दगी के दिन बिता रहा है।
इस इमारत के बगल ही में दलीपशाह का एक बहुत बड़ा खुला हुआ बाग था जिसमें बड़े-बड़े आम, नीबू और अमरूद तथा इसी तरह के और भी बहुत किस्म के दरख्त लगे हुए थे। दलीपशाह अपने मर्दाने मकान में सुन्दर सजे हुए कमरे के बाहर दालान में चौकी के ऊपर फर्श पर बैठे हुए अपने दोस्त इन्द्रदेव से बातचीत कर रहे हैं। इस जगह से सामने का नजरबाग और उसके बाद फाटक अच्छी तरह दिखाई दे रहा है। आज इन्द्रदेव इनसे मिलने के लिये आये हुए हैं और इस समय इनके पास बैठे हुए कई जरूरी मामलों पर सलाह और बातचीत कर रहे हैं।
दलीप० : भाई साहब, गदाधरसिंह आपका दोस्त है इसलिये मैं लाचार होकर उसे अपना दोस्त मानता हूँ, मगर सच तो ये है कि उसके साथ रिश्तेदारी होने पर भी मैं उसे दिल से पसन्द नहीं करता।
इन्द्र० : हाँ, उसकी चालचलन तो कुछ खराब जरूर है मगर आदमी बड़े ही जीवट का है और ऐयारी का ढंग भी बहुत जानता है।
दलीप० : इस बात को मैं जरूर मानता हूँ बल्कि जोर देकर कह सकता हूँ कि अगर वह ईमानदारी के साथ काम करता हुआ रणधीरसिंहजी के यहाँ कायदे से बना रहता तो एक दिन ऐयारों का सिरताज गिना जाता।
इन्द्र० : ठीक है मगर उसे रणधीरसिंह का साथ छोड़ तो नहीं दिया!
दलीप० : अब इसे छोड़ना नहीं तो क्या कहते हैं? दो-दो महीने तक गायब रहना और मालिक को मुँह तक नहीं दिखाना, क्या इसी को नौकरी कहते हैं? आप ही कहिये कि अबकी कै महीने के बाद आया था? सिर्फ दो दिन रह कर चला गया। उससे तो उसकी स्त्री अच्छी है जो अपने मालिक अर्थात् रणधीरसिंह की स्त्री का साथ नहीं छोड़ती।
इन्द्र० : ठीक है मगर उसने रणधीरसिंह के यहाँ बदले में अपना शार्गिर्द रख दिया है, इसके अतिरिक्त जब रणधीरसिंहजी को उसकी जरूरत पड़ती है तो उसी शार्गिर्द की मार्फत उसे बुलवा भेजते हैं। अभी हाल ही में देखिये उसने कैसी बहादुरी के काम किये।
दलीप० : अजी यह तो मैं खुद कह रहा हूँ कि वह ऐयार परले सिरे का है, मगर इस जगह बहस तो ईमानदारी की हो रही है।
इन्द्र० : (दबी जुबान से) हाँ, वह लालची तो जरूर है मगर अभी नई जवानी है, सम्भव है आगे चल कर सुधर जाय!
दलीप० : (हँसकर) जी हाँ, बात तो यही है कि वह कमबख्त आपके सामने ढोंग रचता है और दयारामजी के मामले पर उदासी दिखला कहता है कि अब मैं दुनिया ही छोड़ दूँगा, मगर मैं इस बात को कभी नहीं मान सकता, हाँ उसका यह कहना शायद सच हो कि दयारामजी के मामले में उसने धोखा खाया।
इन्द्र० : भाई, उसकी यह बात तो जरूर सच है, वह जान-बूझकर दयाराम को कदापि नहीं मार सकता है।
दलीप० : जी हाँ, मैं भी यही सोचता हूँ मगर आप देख लीजियेगा कि कुछ दिन के बाद वह हमारे और आपके ऊपर भी सफाई का हाथ जरूर फेरेगा। आपके ऊपर चाहे मेहरबानी भी कर जाये क्योंकि आपसे डरता है और उसे विश्वास है कि आप ऐयारी में किसी तरह उससे कम नहीं हैं, मगर मुझे कभी न छोड़ेगा।
इन्द्र० : अजी भविष्य में जैसा करेगा वैसा पावेगा, इस समय तो वह हमारा-आपका किसी का भी कसूरवार नहीं है!
दलीप० : (खिलाखिला कर हँसने के बाद धीरे से) तब क्यों आपने बेचारे के पीछे जमना और सरस्वती को लगा दिया है?
इन्द्र० : केवल उन दोनों का प्रण पूरा करने के लिये मैंने यह कार्रवाई कर दी है नहीं तो तुम ही सोचो कि बेचारी लड़कियाँ उसका क्या बिगाड़ सकती हैं। दलीप० : तो आप उन लड़कियों के साथ धोखेबाजी का काम करते हैं, सच्चे दिल से उनकी मदद नहीं करते!
इन्द्र० : (दाँत से जुबान दबाने के बाद) नहीं-नहीं, मैं जरूर उनकी मदद करता हूँ मगर मेरी इच्छा यही है कि गदाधरसिंह मारा न जाये और दोनों लड़कियों की अभिलाषा भी पूरा हो जाये।
दलीप० : यह एक अनूठी बात है, खरबूजा खा भी लें और वह काटा भी न जाये! मैं तो समझता हूँ वह एक दिन जमना और सरस्वती को मार डालेगा।
इन्द्र०: नहीं ऐसा तो न करेगा।
दलीप० : अजी आप तो निरे ही साधु हैं, इतने बड़े ऐयार होकर भी धोखा खाते हैं, मगर इसमें आपका कोई कसूर नहीं है, ईश्वर ने आपका दिल ही ऐसा नरम बनाया है कि बुराई पर ध्यान नहीं देते, मगर भाईजान मैं तो उससे बराबर खटका रहता हूँ। इससे आप यह न समझिये कि मैं उसका दुश्मन हूँ, आपकी तरह मैं भी यही चाहता हूँ कि वह किसी तरह अच्छे ढर्रे पर आ जाये मगर यह उम्मीद नहीं। अच्छा यह बताइये कि उन लोगों के विषय में आजकल क्या कार्रवाई हो रही है अर्थात् जमना और सरस्वती क्या कर रही हैं?
इन्द्र० : बस गदाधरसिंह के पीछे पड़ी हुई हैं, आज कई दिन हुए कि उसे गिरफ्तार भी कर लिया था मगर सिर्फ डरा-धमका के छोड़ दिया, क्योंकि मैंने अच्छी तरह समझा दिया है कि दुश्मन को सता के और दु:ख दे के बदला लेना चाहिए न कि जान से मार के। वे बेचारियाँ तो मेरी बात मान जायेंगी मगर गदाधरसिंह की तरफ से मैं डरता हूँ, ऐसा न हो कि वह उन दोनों का सफाया कर दे।
दलीप० : (मुस्करा कर) मगर आप तो उसे नेक बना रहे हैं, उस पर भरोसा कर रहे हैं! अभी-अभी कह चुके हैं कि वह उन दोनों के साथ बुराई कभी न करेगा।
इन्द्र० : आशा तो ऐसी ही है जो मैं कह चुका हूँ, फिर भी डरता हूँ क्योंकि आजकल उसका रंग-ढंग और रहन-सहन ठीक नहीं है।
दलीप० : आप तो अच्छी दोतर्फी बात करते हैं!
इन्द्र० : ऐसा नहीं है मेरे दोस्त, मैं खूब समझता हूँ कि वह आजकल बिगड़ा हुआ है मगर मैं उसे सुधारना चाहता हूँ, मेरा खयाल है कि वह दु:ख भोग कर सुधर सकता है, अगर उसकी यातना की जाये तो ताज्जुब नहीं कि वह राह पर आ जाये।
दलीप० : तो क्या बेचारी जमना और सरस्वती ही के हाथ से उसकी यातना कराइयेगा?
इन्द्न० : नहीं, वे बेचारियाँ भला क्या कर सकेंगी, मैं अब आपके पास इसीलिए आया हूँ कि इस काम में आप से मदद लूँ।
दलीप० : वह क्या? मैं आपके के लिए हर तरह से तैयार हूँ।
इन्द्र० : आप जानते ही हैं मैं अपना स्थान किसी तरह छोड़ नहीं सकता।
दलीप० : बेशक ऐसा ही है।
इन्द्र० : इसलिए मैं चाहता था कि आप कुछ दिनों तक उन लड़कियों के साथ रह कर उनकी मदद करें मगर मैं देखता हूँ कि आप बेतरह गदाधरसिंह पर टूटे हुए हैं। मैं यह नहीं चाहता कि वह जान से मारा जाय।
दलीप० : तो क्या आप समझते हैं कि मैं आपकी इच्छा के विपरीत चलूँगा?
इन्द्र० : नहीं-नहीं, ऐसा तो मुझे स्वप्न में भी गुमान नहीं हो सकता। हाँ यह सोचता हूँ कि मेरा कहना आपकी इच्छा के विरुद्ध कहीं न हो।
दलीप० : चाहे जो हो मगर मैं आपकी बात कभी न टालूँगा, इसके अतिरिक्त आप जानते ही हैं कि वह मेरा रिश्तेदार है, उसकी स्त्री शान्ता है तो मेरी साली, मगर मैं उसे बहिन की तरह मानता और प्यार करता हूँ, ऐसी अवस्था में मैं कब चाहूँगा कि गदाधरसिंह मारा जाय और उसकी स्त्री विधवा होकर मेरी आँखों के सामने आवे! मगर बात जो असल है वह जरूर कहने में आती है।
इन्द्र० : ठीक है मगर गदाधरसिंह खुद अपने पैर में कुल्हाड़ी मार रहा है। खैर जैसा करेगा वैसा पावेगा। हम लोग जहाँ तक हो सकेगा उसको सुधारने की कोशिश करेंगे, आगे जो ईश्वर की मर्जी।
दलीप० : खैर मुझे आप क्या काम सुपुर्द करते हैं सो कहिए?
इन्द्र० : मैं चाहता हूँ कि आप कुछ दिनों तक जमना और सरस्वती के साथ रहकर उनकी मदद कीजिए, मगर इस तरह पर नहीं कि जो कुछ वे कहती जायँ आप करते जायँ।
दलीप० : तब किस तरह से?
इन्द्र० : इस तरह से कि दोनों जिस तरह चाहें स्वयं काम करके अपना हौसला पूरा करें और यही उनकी इच्छा भी है, मगर जब कभी वह धोखा खा जायँ या किसी मुसीबत में फँस जायँ तब आप उनकी रक्षा करें।
दलीप० : यह तो बड़ा कठिन काम है!
इन्द्र० : बेशक कठिन काम है और इसे सिवाय आपके दूसरा पूरा नहीं कर सकता।
दलीप० :(कुछ सोचकर) बहुत अच्छा, मैं तैयार हूँ।
इन्द्र० : तो बस जी आज ही आप मेरे साथ चलिए, मैं उन दोनों को आपके सुपुर्द कर दूँ और उस घाटी के भेद भी आपको बता दूँ तथा जो कुछ मैं कर आया हूँ उसे भी समझा दूँ।
दलीप० : जब आपकी इच्छा हो तो चलिए। (फाटक की तरफ खयाल करके) देखिए गुलाबसिंह चले आ रहे हैं, इन्हें चुनार से क्योंकर छुट्टी मिली!
इन्द्र० : इनका हाल आपको मालूम नहीं है पर मैं सुन चुका हूँ और इस समय आपसे कहने ही वाला था कि इन्दुमति भी आजकल जमना और सरस्वती के पास पहुँची हुई है, मगर अब कहने की कोई जरूरत नहीं, खुद गुलाबसिंह की जुबानी आप सब कुछ सुन लेंगे और शायद इसीलिए वह यहाँ आए भी हैं।
दलीप० : शिवदत्त भी नया राज्य पाकर आजकल अन्धा हो रहा है।
इन्द्र० : बेशक ऐसा ही है।
इतने ही में दरबान ने ऊपर आकर गुलाबसिंह के आने की इत्तिला की और इन्हें ले आने का हुक्म पाकर चला गया। थोड़ी ही देर में गुलाबसिंह वहाँ आ पहुँचे और उन्होंने बड़े अदब के साथ इन्द्रदेव को सलाम किया और दलीपसिंह से मिले।
इशारा पाकर गुलाबसिंह एक कुर्सी पर बैठ गए और इस तरह बातचीत होने लगी:-
दलीप० : कहो भाई गुलाबसिंह जी, आज तो बहुत दिनों के बाद आप से मुलाकात हुई है, सब कुशल तो है?
गुलाब० : जी कुशलता तो नहीं है, और इसीलिए मुझे चुनारगढ़ से भागना पड़ा।
दलीप० : क्या महाराज शिवदत्त की नौकरी आपने छोड़ दी?
गुलाब० : हाँ, मजबूर होकर मुझे ऐसा करना पड़ा, क्योंकि मैं प्रभाकरसिंह के साथ किसी तरह का बुरा बर्ताव नहीं कर सकता था।
दिलीप० : प्रभाकरसिंह भी तो उन्हीं के यहाँ सेनापति का काम करते हैं?
गुलाब० : हाँ, मगर महाराज ने उनके साथ बहुत ही बुरा बर्ताव किया, उनकी इन्दुमति पर हजरत आशिक हो गए और बड़ी-बड़ी चालबाजियों से अपने महल में बुलवा लिया, मगर जब वह किसी तरह राजी न हुई जान देने पर तैयार हो गई तब लाचार उसे महल के अंदर कैद कर रक्खा और प्रभाकरसिंह को मार डालने का बंदोबस्त करने लगे जिसमें निश्चिन्त होकर इन्दुमति को काम में लावे, परन्तु प्रभाकरसिंह को इस बात का पता लग गया और वे महल में घुसकर बड़ी बहादुरी से इन्दुमति को छुड़ा लाए। तो भी शिवदत्त का मुकाबला नहीं कर सकते थे इसलिए अपनी स्त्री को साथ लेकर वहाँ से भाग खड़े हुए।
इसके बाद शिवदत्त ने उसकी गिरफ्तारी के लिए मुझे मुकर्रर किया, मैंने इसी बात को गनीमत समझा और कई आदमियों को साथ लेकर उनकी खोज में निकला। आखिर उनसे मुलाकात हो गई और तब से उनकी ताबेदारी में रहने लगा क्योंकि उनके बुर्जुर्गों ने जो कुछ भलाई मेरे साथ की है उसे मैं भूल नहीं सकता। नौगढ़ की सरहद के पास ही उनसे मुलाकात हुई थी और अकस्मात् उसी जगह भूतनाथ भी मुझसे मिल गया। मैंने भूतनाथ से मदद माँगी और वह मदद देने के लिए तैयार होकर हम लोगों को अपने डेरे पर ले गया, मगर कई मामले ऐसे हो गए कि भूतनाथ दोस्ती का इस्तीफा देकर दुश्मन बन बैठा और उसके सबब से भी हमें तकलीफ ही उठानी पड़ी!
इतना कहकर गुलाबसिंह ने इन्द्रदेव की तरफ देखा।
इन्द्र० : हाँ-हाँ गुलाबसिंह, तुम कहते जाओ रुको, मत, दलीपशाह से कोई बात छिपी हुई नहीं है।
गुलाब० : (हाथ जोड़ कर) जी नहीं, अब जो कुछ कहना बाकी है आप ही इन्हें समझा दें, मैं डरता हूँ कि कदाचित् मेरी जुबान से ऐसी कोई बात निकल पड़े जिसे आप नापसंद करते हों तो.....
इन्द्र० : (मुस्कराकर) अजी नहीं गुलाबसिंह, मैं तुम्हें अच्छी तरह जानता हूँ, तुम बड़े ही नेक और सज्जन आदमी हो, जमना और सरस्वती ने जो कुछ भेद की बातें प्रभाकरसिंह से कही हैं सो मुझे मालूम हैं और प्रभाकरसिंह ने जो कुछ तुम्हें बताया है उसे भी मैं कदाचित् जानता हूँ, अस्तु तुम जो कहना चाहते हो बेधड़क कह जाओ।
गुलाब० : जो आज्ञा, अच्छा तो मैं संक्षेप ही में कह डालता हूँ, (दलीपशाह से) भूतनाथ जिस घाटी में रहता है उसके पास ही जमना और सरस्वती भी रहती हैं। वह किसी तरह प्रभाकरसिंह को अपने यहाँ ले गईं मगर इसके बाद ही इन्दुमति पुन: दुश्मनों के हाथ में फँस गई, उसे भी दोनों बहिनें छुड़ाकर अपने यहाँ ले गईं। तब से इन्दुमति उन्हीं के यहाँ रहती है।
प्रभाकरसिंह उस खोह में बाहर आए और कई दिनों के बाद हम दोनों आदमी चुनारगढ़ की तरफ रवाना हुए इसलिए कि कुछ सिपाहियों का बन्दोबस्त करके दुश्मन से बदला लें, मगर भूतनाथ जिसे जमना और सरस्वती ने गिरफ्तार करके नीचा दिखाया था हम लोगों का दुश्मन बन बैठा और धोखा देकर प्रभाकरसिंह को कैद अपने घर ले गया, कहाँ रक्खा मुझे मालूम नहीं।
इसके बाद गुलाबसिंह ने वह किस्सा खुलासे तौर पर दलीपशाह और इन्द्र देव से बयान किया। इन्द्रदेव को प्रभाकरसिंह की गिरफ्तारी का हाल अभी तक मालूम नहीं हुआ था अस्तु उन्हें यह सुन कर बड़ा दु:ख हुआ और उन्होंने दलीपशाह से कहा, ‘‘मेरे दोस्त, मुझे प्रभाकरसिंह के हाल पर अफसोस होता है।
भूतनाथ ने भी यह काम अच्छा नहीं किया। खैर कोई चिन्ता नहीं, प्रभाकरसिंह को उसके कब्जे से निकाल लेना कोई बड़ी बात नहीं है। अब तुम सफर की तैयारी करो, और जमना और सरस्वती के साथ-ही-साथ प्रभाकरसिंह की मदद करो, मैं खुद तुम्हारे साथ चल कर प्रभाकर सिंह को कैद से छुट्टी दिलाऊँगा!’’
इतना कह कर इन्द्रदेव दलीपशाह को कमरे के अंदर ले गये और आधे घण्टे तक एकान्त में न-मालूम क्या समझाते रहे, इसके बाद बाहर आए और बहुत देर तक गुलाबसिंह से बातचीत करते रहे।
|