मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 1 भूतनाथ - खण्ड 1देवकीनन्दन खत्री
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भूतनाथ - खण्ड1 पुस्तक का ई-संस्करण
आठवाँ बयान
भूतनाथ को जब अपनी घाटी में घुसने का रास्ता नहीं मिला तो प्रभाकरसिंह को एक दूसरे ही स्थान में ले जाकर रख आया था और अपने दो आदमी उनकी हिफाजत के लिए छोड़ दिये थे। अब जब भूतनाथ महात्माजी की कृपा से अपनी सुहावनी घाटी में पहुँच गया, सुरंग का रास्ता उसके लिए साफ हो गया, दरवाजा खोलने और बन्द करने की तरकीब मिल गई बल्कि उसके साथ-ही-साथ बेअन्दाज दौलत का भी मालिक बन बैठा, तो उसका हौसला बनिस्बत पहिले के सौगुना बढ़ गया और उसने चाहा कि प्रभाकरसिंह को भी लाकर उसी घाटी में रख छोड़े अस्तु महात्माजी को विदा करने के बाद दूसरे दिन वहाँ से रवाना हुआ और संध्या होते-होते तक प्रभाकरसिंह को इस घाटी में ले आया। प्रभाकरसिंह दवा के नशे में बेहोश थे और उनके हाथ में हथकड़ी तथा पैरों में में बेड़ी पड़ी हुई थीं।
भूतनाथ ने उन्हें एक बहुत बड़ी साफ और सुन्दर चट्टान पर रख दिया, पैर की बेड़ी खोल दीं, और लखलखा सुँघा कर उनकी बेहोशी दूर की जब प्रभाकरसिंह उठ कर बैठ गये तो इस तरह बातचीत होने लगी:-
प्रभा० :(चारों तरफ देख कर) क्या अभी तक मेरी गिनती कैदियों ही में है? मैं पुन: बेहोश करके इस घाटी में क्यों लाया गया और तुम क्यों नहीं बताते कि इस तरह दु:ख देने से तुम्हारा क्या मतलब है?
भूत० : प्रभाकरसिंह, तुम खूब जानते हो कि ऐयारों को जरा-जरा से काम के लिए बड़े-बड़े नाजुक और अमीर आदमियों को तकलीफ देनी पड़ती है। मैं हर तरह से बेफिक्र कर देता, मगर अफसोस, तुमने मेरे दुश्मनों से मिल कर मुझे धोखा दिया और गुलाबसिंह को भी जो मेरा दोस्त था बहका दिया!
प्रभा० : मैंने तुम्हारे किस दुश्मन से मिल कर तुम्हारा क्या नुकसान किया सो साफ-साफ क्यों नहीं कहते?
भूत० : क्या तुम नहीं जानते जो साफ-साफ कहने की जरूरत है? जमना और सरस्वती ने मुझे तकलीफ देने के लिए ही अवतार लिया है और तुम उनके पक्षपाती बन गये हो, वे तो भला औरत की जात है, ना समझ कहलाती हैं, पर तुम्हीं ने उनका भ्रम क्यों नहीं दूर कर दिया कि भूतनाथ ने दयाराम को कदापि न मारा होगा क्योंकि वह उनके साथ मुहब्बत रखता था और उनका दोस्त था!
प्रभा० : (हँस कर) तुमको भी तो वे गिरफ्तार करके उस घाटी में ले गई थीं, फिर तुम्हीं ने क्यों नहीं उनका भ्रम दूर कर दिया? तुम ऐयार कहलाते हो, हर तरह से बात बनाना जानते हो!
भूत० : मुझे तो कसूरवार ही समझती हैं, फिर भला मेरी बात क्यों मानने लगीं?
प्रभा० : इसी तरह मैं भी तो उनका रिश्तेदार ठहरा, मैं उनकी इच्छा के विरुद्ध क्यों करने लगा? तुम जानों और वे जाने मुझे इन झगड़ों से मतलब ही क्या? बेचारी औरत की जात अबला कहलाती है और तुम इतने बड़े नामी ऐयार हो, फिर भी जरा से मामले के लिए मुझसे मदद माँगते हो और चाहते हो कि मैं तुम्हारे लिए अपने एक रिश्तेदार के साथ बेमुरौवती करूँ जो दया करने के योग्य है। तुम्हें शर्म नहीं आती! हाँ अगर मैं तुम्हारे साथ किसी तरह की बुराई करूँ तो जरूर मुझसे बदला लेना उचित था।
भूत० : (मुस्करा कर) सत्य वचन! मालूम हुआ कि आप बड़े सच बोलने वाले हैं और सिवाय सच के कभी झूठ नहीं बोलते। अच्छा खैर इन बातों से कोई मतलब नहीं, मैं तुमसे बहस करना पसन्द नहीं करता। मैं जो कुछ पूछता हूँ उसका साफ-साफ जवाब दो नहीं तो तुम्हारे लिए अच्छा न होगा।
प्रभा० : अब इस धमकी में तुम्हारी बातों का जवाब नहीं दे सकता, मुलायमियत से अगर पूछते तो शायद कुछ जवाब दे भी देता क्योंकि न तो तुम्हारे किसी अहसान का बोझ मेरी गर्दन पर है न मैं तुमसे डरता ही हूँ।
भूत० : ऐसी अवस्था में भी तुम मुझसे नहीं डरते? देख रहे हो कि तुम्हारे हर्बे छीन लिए गए, हथकड़ी तुम्हारे हाथों में पड़ी हुई है, और इस समय तुम हर तरह से मजबूर और कमजोर हो!
‘‘यह हथकड़ी तो कोई चीज नहीं है, मेरे ऐसे क्षत्री के लिए तुमने इसे पसन्द किया यह तुम्हारी भूल है!’’ इतना कहकर बहादुर प्रभाकरसिंह ने एक झटका ऐसा दिया कि हथकड़ी टूट कर उनके हाथों से अलग हो गई और साथ ही इसके वे अपनी कमर से तलवार खैंच कर भूतनाथ सामने खड़े हो गये और बोले, ‘‘बताओ क्या अब भी मैं तुम्हारा कैदी हूँ?’’
प्रभाकरसिंह की कमर में एक ऐसी तलवार थी जो बदन के साथ पेटी की तरह लपेट कर बाँधी जा सकती थी, चमड़े की मुलायम म्यान उसके ऊपर चढ़ी हुई थी और उसे प्रभाकरसिंह कपड़े के अन्दर कमर में लपेट कर धोती और कमरबन्द से छिपाये हुए थे, अभी तक उस पर भूतनाथ की निगाह नहीं गई थी, बल्कि उसे इस बात का कुछ गुमान भी न था, यह तिलिस्मी तलवार बिमला ने प्रभाकरसिंह को दी थी और बिमला ने इन्द्रदेव से पाई थी। इन्द्रदेव का बयान है कि उन्हें इसी तरह के कई हर्बे कुँवर गोपालसिंह ने अपने जमानिया के तिलिस्म में से निकाल कर दिये थे।
इस तलवार में करीब-करीब वही गुण थे जो तिलिस्मी खंजर और नेजे में था जिसका हाल हम चन्द्रकान्ता सन्तति में लिख आये हैं, फर्क बस इतना था कि जिस तरह उन खंजरों में कब्जा दबाने से चमक पैदा होती थी उस तरह इससे चमक नहीं पैदा होती थी और न इसके छूने से आदमी बेहोश ही होता था मगर इसका जख्म लगने से बिजली के असर से आदमी बेहोश हो जाता था। उसकी तरह इसके जोड़े की भी एक खूबसूरत अँगूठी जरूरी थी जो इस समय प्रभाकरसिंह की तर्जनी उँगली में पड़ी हुई थी। इस अँगूठी में यह भी गुण था कि अगर धोखे में उन्हीं को इसका जख्म लग जाय तो उन्हें कुछ असर न हो।
प्रभाकरसिंह की हिम्मते-मर्दानगी और ताकत देखकर भूतनाथ हैरान हो गया बल्कि यों कह सकते हैं कि घबड़ा गया, यद्यपि भूतनाथ भी मर्दे-मैदान और लड़ाका था तथा यहाँ पास ही में उसके कई मददगार भी थे जो उसके आवाज देने के साथ ही पहुँच सकते थे मगर फिर भी थोड़ी देर के लिए उसके ऊपर प्रभाकरसिंह का रोब छा गया और वह खड़ा होकर मुँह देखने लगा।
प्रभा० : हाँ बताओ तो क्या मैं अब भी कैदी हूँ।
भूत० : (बनावटी मुस्कुराहट के साथ) हाँ बेशक तुम ताकतवर और बहादुर हो, मगर समझ रक्खो कि ऐयारों का मुकाबला करना तुम्हारा काम नहीं है।
प्रभा० : हाँ बेशक इस बात को मैं मानता हूँ, मगर खैर जैसा मौका होगा देखा जायेगा। इस समय तुम्हारा क्या इरादा है सो साफ-साफ कह डालो, अगर लड़ना चाहते हो तो मैं लड़ने के लिए तैयार हूँ।
भूत० : मुझे न तो तुम्हारे साथ किसी प्रकार की दुश्मनी ही है और न मैं व्यर्थ लड़ना ही चाहता हूँ, हाँ, इतना जरूर चाहता हूँ कि जमना और सरस्वती का सच्चा-सच्चा हाल मुझे मालूम हो जाय। न-मालूम किस नालायक ने उन्हें समझा दिया है कि मैं अपने दोस्त दयारामजी का घातक हूँ तथा इस बात पर विश्वास करके उन्होंने मेरे साथ दुश्मनी करने पर कमर बाँध ली है, और.....
प्रभा० : (बात काट कर) ओफ, इन पचड़ों को मैं सुनना पसन्द नहीं करता, इस बारे में मैं पहिले ही कह चुका हूँ कि तुम जानो और वे जानें, मैं तुम्हारा ताबेदार नहीं हूँ कि तुम्हारे लिए उनको समझाने जाऊँ।
भूत० : (क्रोध के साथ) तुम अजब ढंग से बातें कर रहे हो! तुम्हारा मिजाज तो आसमान पर चढ़ा हुआ है!!
प्रभा० : बेशक ऐसा ही है, तुम धोखा देकर मुझे गिरफ्तार कर लाए हो इसलिए मैं तुमसे बात करना भी पसन्द नहीं करता।
भूत० : फिर ऐसा करने से तो नहीं चलता, तुम्हें झख मार कर मेरी बातों का जवाब देना पड़ेगा।
यह कहकर भूतनाथ ने भी म्यान से तलवार निकाली और पैंतरा बदलकर सामने खड़े हो गया।
प्रभा० : तुम्हारी तलवार बिल्कुल बेकार है, कुछ भी काम नहीं देगी, चलाओ और देखो क्या होता है।
भूत० : हाँ-हाँ, देखो यह तलवार कैसा मजा करती है, मैं तुम्हें जान से न मारूँगा बल्कि बेकार छोड़ दूँगा।
इतना कहके भूतनाथ ने प्रभाकरसिंह पर वार किया जिसे उन्होंने बड़ी चालाकी के साथ अपनी तलवार पर रोका।
प्रभाकरसिंह की तलवार पर पड़ने के साथ ही भूतनाथ की तलवार कट कर दो टुकड़े हो गई क्योंकि वह हर एक हर्बे को काट सकती थी। भूतनाथ ने टूटी तलवार फेंक दी और कमर से खंजर निकाल कर वार क्या चाहता था कि प्रभाकरसिंह ने अपनी तलवार से उसे काट कर टुकड़े कर दिया। भूतनाथ को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और वह सोचने लगा कि यह अनूठी तलवार किस लोहे की बनी हुई है जो दूसरे हर्बों को इतने सहज ही में काट डाला करती है!
थोड़ी ही दूर पर भूतनाथ के कई आदमी खड़े यह तमाशा देख रहे थे मगर मालिक का इशारा पाये बिना पास नहीं आ सकते थे। इस समय भूतनाथ ने इशारा किया और वे लोग जो गिनती में आठ थे वहाँ आ मौजूद हुए। यह कैफियत देख कर प्रभाकरसिंह ने कहा, ‘‘भूतनाथ, ‘‘मैं केवल तुम्हीं से नहीं बल्कि एक साथ इन सभों से लड़ने के लिए तैयार हूँ।’’
यह बात भूतनाथ को बहुत बुरी मालूम हुई और अपने एक साथी के हाथ से तलवार लेकर उसने पुन: प्रभाकरसिंह पर वार किया और साथ-साथ अपने साथियों को भी मदद के लिए इशारा किया।
प्रभाकरसिंह बड़ा ही बहादुर आदमी था और लड़ाई के फन में तो वह लासानी थी। अगर वह चाहता तो सहज ही में अपनी तिलिस्मी तलवार से जख्मी करके सभों को बेहोश कर देता, मगर नहीं, उसने कुछ देर तक लड़ कर सभों को दिखला दिया कि हमारे सामने तुम लोग कुछ भी नहीं हो! यद्यपि उसके बदन पर भी कई जख्म लगे, मगर उसने सभों के हर्बे बेकार कर दिये और अन्त में भूतनाथ तथा उसके सभी साथी जख्मी होकर तलवार वाली बिजली के असर से बेहोश हो जमीन पर गिर पड़े। प्रभाकरसिंह धीरे-धीरे मस्तानी चाल से चलते हुए वहाँ से रवाना हुए, मगर जब सुरंग में आये और दरवाजा बन्द पाया तब मजबूर होकर उन्हें रुक जाना पड़ा।
प्रभाकरसिंह पुन: लौट कर वहाँ आये जहाँ भूतनाथ और उसके साथी लोग बेहोश पड़े हुए थे। तिलिस्मी तलवार के जोड़ के अँगूठी उन्होंने भूतनाथ के बदन से लगाई, उसी समय भूतनाथ की बेहोशी जाती रही। वह उठ कर खड़ा हो गया और ताज्जुब के साथ प्रभाकरसिंह का मुँह देखने लगा।
भूत० : मैं समझ गया कि तुम बहादुर आदमी हो और तुम्हारे हाथ की यह तलवार बड़ी ही अनूठी है जिसके सबब से तुम और भी जबर्दस्त हो रहे हो। (मुस्करा कर) सच कहना यह तलवार तुमने कहाँ से पाई! पहिले तो यह तुम्हारे पास न थी, अगर होती तो बेइज्जती के साथ तुम चुनारगढ़ से न भागते!
प्रभा० : ठीक है मगर इससे तुम्हें क्या मतलब, चाहे कहीं से यह तलवार मुझे मिली हो।
भूत० : (मुलायमियत के साथ) नहीं-नहीं प्रभाकरसिंह, बुरा मत मानो, मेरी बातों का जवाब देने से तुम कुछ छोटे नहीं हो जाओगे। बताओ तो सही क्या यह तलवार जहर में बुझाई हुई है? क्योंकि इसका जख्म लगने के साथ ही नशा चढ़ आता है।
प्रभा० : कदाचित् ऐसा ही हो, मैं ठीक नहीं कह सकता!
भूत० : देखो मेरे साथी लोग अभी तक बेहोश पड़े हुए हैं।
प्रभा० : अभी बड़ी देर तक ये बेहोश पड़े रहेंगे मगर मरेंगे नहीं। तुम्हारी बेहोशी तो मैंने खुद दूर कर दी है, खैर यह बताओ कि अब तुम मेरे साथ क्या किया चाहते हो?
भूत० : कुछ भी नहीं, मैं जो कुछ कर चुका हूँ उसी के लिए आपसे माफी माँगता हूँ और चाहता हूँ कि आइन्दा के लिए हमारे और आपके बीच सुलह हो जाय।
प्रभा० : जैसा तुम बर्ताव करोगे मैं वैसा ही जवाब दूँगा, मुझे खास तौर पर तुम्हारे साथ किसी तरह की दुश्मनी नहीं है।
भूत० : अच्छा तो चलिए मैं आपको इस घाटी के बाहर कर आऊँ क्योंकि बिना मेरी मदद के आप यहाँ से बाहर नहीं जा सकते।
प्रभा० : चलो।
भूत०: मगर मैं देखता हूँ कि आप बहुत जख्मी हो रहे हैं और खून से आपका कपड़ा तरबतर हो रहा है, मुझे आज्ञा दीजिए तो आपके जख्मों को धोकर उन पर गीले कपड़े की पट्टी बाँध दूँ।
प्रभा० : नहीं, इसकी कोई जरूरत नहीं है, घाटी के बाहर निकल कर मैं इसका उपाय कर लूँगा।
भूत० : आखिर क्यों ऐसा किया जाय, जितनी देर होगी उतना ज्यादे खून निकल जायगा, आप इसके लिए जिद्द न करे, आप मुझ पर भरोसा करें और आज्ञा दें इन जख्मों पर पट्टी बाँध दूँ.
प्रभा० : खैर जैसी तुम्हारी मर्जी, मैं तैयार हूँ,
भूतनाथ तेजी के साथ उस गुफा में चला जिसमें उसका डेरा था और पीतल की गगरी पानी से भरी हुई और एक लोटा तथा कुछ कपड़ा पट्टी बाँधने के लिए लेकर प्रभाकरसिंह के पास आया.
प्रभाकरसिंह ने कपड़े उतारे और भूतनाथ ने जख्मों को धोकर उन पर पट्टियाँ बाँधी इसके बाद प्रभाकरसिंह कपड़ा पहिन कर चलने के लिए तैयार हो गए. भूतनाथ ने अपने आदमियों के विषय में प्रभाकरसिंह से पूछा कि इन सभों की बेहोशी खुद-ब-खुद जाती रहेगी या इसके लिए कोई इलाज करना होगा?
पहिले तो प्रभाकरसिंह के जी में आया कि अपने हाथ की अंगूठी छुआ कर उन सभों की बेहोशी दूर कर दें मगर फिर कुछ सोच कर रुक गए और बोले, ‘‘नहीं इनकी बेहोशी आप-से-आप थोड़ी देर में जाती रहेगी, कुछ उद्योग करने की जरूरत नहीं.’’
आगे-आगे भूतनाथ और पीछे-पीछे प्रभाकरसिंह वहाँ से रवाना हुए, सुरंग में घुसकर भूतनाथ ने वह दरवाजा खोला जो बन्द था मगर प्रभाकरसिंह को यह नहीं मालूम हुआ कि वह दरवाजा किस ढंग से खोला गया.
घाटी के बाहर निकल जाने पर भी भूतनाथ बहुत दूर तक पहुँचाने के लिए प्रभाकरसिंह के साथ मीठी-मीठी बातें करता हुआ चला गया लगभग आध कोस तक दोनों आदमी चले गये होंगे जब प्रभाकरसिंह का सर घूमने लगा और धीरे-धीरे बेहोश होकर वे जमीन पर गिर पड़े.
भूतनाथ बड़ा ही चालाक और काँइया था और उसने प्रभाकरसिंह को बुरा धोखा दिया हमदर्दी दिखा कर जख्म धोने के बहाने से वह बेहोशी की दवा का बर्ताव कर गया.
जो पानी वह अपनी गुफा में से लेकर आया था उसमें जहरीली दवा मिली हुई थी मगर वह दवा ऐसी न थी जिससे जान जाती रहे बल्कि ऐसी थी कि खून के साथ मिल कर बेहोशी का असर पैदा करे।
जब प्रभाकरसिंह बेहोश हो गए तब भूतनाथ ने पहिले तो अगूँठी और तलवार पर कब्जा किया और बहुत ही खुश हुआ इसके बाद प्रभाकरसिंह को गठरी में बाँध पीठ पर लाद अपनी घाटी की तरफ रवाना हुआ बेचारे प्रभाकरसिंह पुनः भूतनाथ के फन्दे में फँस गए, देखा चाहिए अब भूतनाथ उनके साथ क्या सलूक करता है!
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