मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 1 भूतनाथ - खण्ड 1देवकीनन्दन खत्री
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भूतनाथ - खण्ड1 पुस्तक का ई-संस्करण
दसवाँ बयान
दोपहर का समय है मगर सूर्यदेव नहीं दिखाई पड़ते। आसमान गहरे बादलों से भरा हुआ है ठण्डी-ठण्डी हवा चल रही है और जान पड़ता है कि मूसलाधार पानी बरसा ही चाहता है।
भूतनाथ अपनी घाटी के बाहर निकल कर अकेला ही मैदान और जंगल की सैर कर रहा है उसके दिल में हर तरह की बातें उठ रही हैं, तरह-तरह के विचार पैदा हो और मिट रहे हैं। कभी वह अटक कर इस तरह चारों तरफ देखने लग जाता है जैसे किसी के आने की आहट लेता हो और कभी जफील बजा कर उसके जवाब का इन्तजार करता है।
इसी तरह वह बहुत देर तक घूमता रहा, आखिर एक पत्थर की चट्टान पर बैठ गया और कुछ सोचने लगा भूतनाथ उठ खड़ा हुआ और उसी तरफ रवाना हुआ जिधर से जफील की आवाज आई थी थोड़ी दूर जाने पर उसके अपने एक शागिर्द को देखा जिसका नाम रामदास था। इसे भूतनाथ बहुत ही प्यार करता और अपने लड़के के समान मानता था और वास्तव में रामदास बहुत चालाक और धूर्त था भी। यद्यपि उसकी उम्र बीस साल के ऊपर होगी मगर देखने में वह बारह या तेरह वर्ष से ज्यादे का नहीं मालूम होता था।
उसकी रेख बिलकुल ही नहीं आई थी और उसकी सूरत में कुदरती तौर पर जनानापन मालूम होता था, यही सबब था कि वह औरतों की सूरत में बहुत काम कर गुजरता था और हाव-भाव में भी उससे किसी तरह की त्रुटि नहीं होती थी, इस समय उसकी पीठ पर एक गठरी लदी हुई थी जिसे देख भूतनाथ को आश्चर्य हुआ और उसने आगे बढ़कर पूछा, ‘‘कहो रामदास, खैरियत तो है? यह तुम किसे लाद लाए हो? मालूम होता है कोई अच्छा शिकार किया है?’’
रामदास : (कानी आँख से प्रणाम करके) हाँ, चाचा, मैं बहुत अच्छा शिकार कर लाया हूँ!
भूतनाथ : (प्रसन्न होकर) अच्छा-अच्छा आओ इस पत्थर की चट्टान पर बैठ जाओ, देखें तुम्हारा शिकार कैसा है?
भूतनाथ ने गठरी उतारने में उसे मदद दी दोनों आदमी एक पत्थर की चट्टान पर बैठ गये। भूतनाथ ने गठरी खोल कर देखा तो एक बेहोश औरत पर निगाह पड़ी। उसने पूछा, ‘‘यह कौन है?’’
रामदास : यह जमना और सरस्वती की लौंडी है।
भूत० : अच्छा, तुमने इसे कहाँ पाया?
रामदास : उसी घाटी के बाहर जिसमें वे दोनों रहती हैं। यह किसी काम के लिए बाहर आई थी और मैं आपकी आज्ञानुसार उसी जगह छिपकर पहरा दे रहा था, मौका मिलने पर मैंने इसे गिरफ्तार कर लिया और जबर्दस्त बेहोश करके एक गुफा के अन्दर छिपा आया जहाँ किसी को यकायक पता नहीं लग सकता था।
इसके बाद मैं इसी की सूरत बन कर उस सुरंग के पास चला आया जो उस घाटी के अन्दर जाने का रास्ता है और जहाँ मैंने इसे गिरफ्तार किया था। मेरी यह प्रबल इच्छा थी कि उस घाटी के अन्दर जाऊँ मगर इस बात की कुछ भी खबर न थी कि यह औरत जिसे मैंने गिरफ्तार किया है किस दर्जे की है या किस काम पर मुकर्रर है और इसका नाम क्या है, अस्तु इसके जानने के लिए मुझे कुछ पाखण्ड रचना पड़ा जिसमें एक दिन की देर तो हुई मगर ईश्वर की कृपा से मेरा काम बखूबी चल गया, मैंने सूरत बदलने के बाद इस लौंडी के कपड़े तो पहिर ही लिए थे तिस पर भी मैं चुटीला बना कर एक पत्थर की चट्टान पर बैठ गया और इन्तजार करने लगा कि घाटी के अन्दर से कोई आवे तो मैं उसके साथ भीतर पहुँच जाऊँ।
थोड़ी देर बाद जमना और सरस्वती स्वयं घाटी के बाहर आईं, उस समय मुझे यह नहीं मालूम हुआ कि यह जमना और सरस्वती हैं मगर जब घाटी के अन्दर चला गया और तरह-तरह की बाते सुनने में आईं तब मालूम हुआ कि यही जमना और सरस्वती हैं, यद्यपि ये दोनों कला और बिमला नाम से पुकारी जाती थीं मगर यह तो मैं आपसे सुन ही चुका था कि इन्होंने अपना नाम कला और बिमला रक्खा हुआ है इसलिए मुझे कला और बिमला ने देखा तो पूछा, ‘‘अरी हरदेई, अभी तक इसी जगह बैठी हुई है?’’
मैंने धीरे से इसका जवाब दिया, ‘‘ मैं पहाड़ी के ऊपर से गिरकर बहुत चुटीली हो रही हूँ, मुझ में दस कदम चलने की भी ताकत नहीं है बल्कि बात करने में भी तकलीफ मालूम होती है।’’ इसके बाद मैंने कई जगह छिले और कटे हुए जख्म दिखाए जो कि अपने हाथों से बनाये थे, मेरी अवस्था पर उन दोनों को बहुत अफसोस हुआ और वे दोनों मदद देकर मुझे अपनी घाटी के अन्दर ले गईं और दवा-इलाज करने लगीं। दो दिन तक मैं चारपाई पर खड़ा रहा और इस बीच मुझे बहुत-सी बात मालूम हो गई जिन्हें मैं बहुत ही संक्षेप के साथ इस समय बयान करूँगा दो दिन के बाद मैं चंगा हो गया और उन सभों के साथ मिल-जुल कर काम करने लगा क्योंकि इस बीच में मतलब की सभी बातें मुझे मालूम हो चुकी थीं।
भूत० : निःसन्देह तुमने बड़ी हिम्मत का काम किया अच्छा तो कौन-कौन बातें वहाँ तुम्हें मालूम हुईं?
रामदास : पहिली बात तो यह मालूम हुई कि बेचारा भोलासिंह उन दोनों के हाथ से मारा गया। खुद कला और बिमला ने उसे मारा था, यद्यपि यह नहीं मालूम हुआ कि कब किस ठिकाने और किस तरह से उसे मारा मगर इसे कई सप्ताह हो गये।
भूत० : (आश्चर्य से) क्या वह मारा गया?
रामदास : निःसन्देह मारा गया।
भूत० : अभी तो कल-परसों वह मेरे साथ था!
राम- वह कोई दूसरा होगा जिसने भोलासिंह बनकर आपको धोखा दिया।
भूत० : (कुछ सोचकर) बेशक वह कोई दूसरा ही था, अब जो सोचता हूँ तो तुम्हारा कहना ठीक मालूम होता है। हाय मुझसे बड़ी भूल हो गई और मैंने अपने को बर्बाद कर दिया। मेरे साथी-शागिर्द लोग बेचारे अपने दिल में क्या कहते होंगे! वे लोग अगर मेरे साथ दुश्मनी करें तो इसमें उनका कोई कसूर नहीं।
राम : यह क्या बात हुई, भला कुछ मैं भी सुनूँ।
भूत० : तुमसे कुछ छिपा न रहेगा, मैं सब कुछ तुमसे बयान करूँगा, पहले तुम अपना किस्सा कह जाओ।
राम : नहीं-नहीं पहिले मैं आपका यह हाल सुन लूँगा तब कुछ कहूँगा।
रामदास ने इस बात पर बहुत जिद्द किया, आखिर लाचार होकर भूतनाथ को अपना सब हाल बयान करना ही पड़ा जिसे सुनकर रामदास को बड़ा ही दुःख हुआ।
भूत० : अच्छा और क्या तुम्हें मालूम हुआ?
राम : और यह मालूम हुआ कि जिस साधु महाशय का अभी-अभी आपने जिक्र किया है, जिन्होंने आपको खजाना दिया, वह कला और बिमला के पक्षपाती हैं।
जो रंग-ढंग आपने उनके अभी बयान किये हैं ठीक उसी सूरत-शक्ल में मैंने उन्हें वहाँ देखा और यह कहते अपने कानों से सुना था कि -‘भूतनाथ को मैंने खूब ही लालच में फंसा लिया है, अब वह इस घाटी को कदापि न छोड़ेगा और प्रभाकरसिंह को भी इसी जगह ले आवेगा, तब हम लोग उन्हें सहज ही में छुड़ा लेंगे’। इसके अतिरिक्त मुझे यह भी निश्चय हो गया कि वह साधु अपनी असली सूरत में नहीं है बल्कि कोई ऐयार है, मेरे सामने ही उसने बिमला से कहा था कि ‘‘अब मैं इसी सूरत में आया करूँगा।’
भूत० : बेशक वह कोई ऐयार था, मगर अशर्फियाँ किस तरह निकल गईं इसका भी पता कुछ लगा?
राम : इस विषय में तो मैं कुछ नहीं कह सकता।
भूत० : खैर इस बारे में फिर सोचेंगे, अच्छा और क्या देखा-सुना?
राम : और यह भी मालूम हुआ कि गुलाबसिंह आपकी शिकायत लेकर दलीपशाह के पास गये थे, उस समय भी उस बुड्ढे साधु को मैंने उन दोनों के साथ देखा था।
भूत० : खैर तो अब मालूम हुआ कि दलीपशाह के सिर में भी खुजलाहट होने लगी।
राम : बात तो ऐसी ही हैं, यह आपका बगली दुश्मन ठीक नहीं। उससे होशियार रहना चाहिये।
भूत० : बेशक वह बड़ा ही दुष्ट है, आश्चर्य नहीं कि वही भोलासिंह बनकर मेरे पास आया हो।
राम : हो सकता है वही आया हो।
भूत० : खैर उससे समझ लिया जायगा। अच्छा यह बताओ कि कुछ इन्द्रदेव का हाल भी तुम्हें मालूम हुआ या नहीं? मुझे शक होता है कि इन्द्रदेव उन दोनों की मदद पर हैं, ताज्जुब नहीं कि वहाँ वे भी जाते हों।
राम : इन्द्रदेव को तो मैंने वहाँ नहीं देखा और न उनके बिषय में कुछ सुना मगर वे तो आपके मित्र हैं फिर आपके विरुद्ध क्यों कोई कार्रवाई करेंगे?
भूत० : हाँ, मैं भी यही ख्याल करता हूँ, खैर अब और बताओ क्या-क्या...
राम : प्रभाकरसिंह मेरे सामने ही वहाँ पहुँच गये थे मगर मैं उनके बारे में कुछ विशेष हाल न जान सका क्योंकि और ज्यादे दिन वहाँ रहने की हिम्मत न पड़ी। मुझे मालूम हो गया कि अब अगर और यहाँ रहूँगा तो मेरा भेद खुल जायगा क्योंकि दलीपशाह ने दो-तीन दफे मुझे जाँच की निगाह से देखा, अस्तु लाचार हो मैं बहाना करके एक लौंडी के साथ जो सुरंग का दरवाजा खोलना और बन्द करना जानती थी, घाटी के बाहर निकल आया।
भूत० : तुम्हें सुरंग का दरवाजा खोलने और बन्द करने की तरकीब मालूम हुई या नहीं?
राम : नहीं, लेकिन अगर दो-चार दिन और वहाँ रहता तो शायद मालूम हो जाती।
इतने ही में पानी बरसने लगा और हवा में भी तेजी आ गई
राम : अब यहाँ से उठना चाहिये।
भूत० : हाँ, चलो किसी आड़ की जगह में चलकर आराम करें, मेरी राय में तो अब इस घाटी में रहना मुनासिब न होगा, और साथ ही अब भविष्य के लिये बचे हुए आदमियों को आपस में कोई इशारा कायम कर लेना चाहिये जिसे मुलाकात होने पर हम लोग जाँच के खयाल से बरता करें। जिसमें फिर कभी ऐसा धोखा न हो जैसा भोलासिंह के विषय में हुआ है, तुम्हारा इशारा अर्थात एक आँख बन्द करके प्रणाम करना तो बहुत ठीक है, तुम्हारे विषय में किसी तरह धोखा नहीं हो सकता।
राम : बहुत मुनासिब होगा, अब यह सोचना चाहिये कि हम लोग अपना डेरा कहाँ कायम करेंगे?
भूत० : तुम ही बताओ।
राम : मेरी राय में तो लामाघाटी१ उत्तम होगी।
भूत० : खूब कहा, इस राय को मैं पसन्द करता हूँ!
इतना कह के भूतनाथ ने पुनः उस औरत की गठरी बाँधी जिसे रामदास ले आया था और अपनी पीठ पर लाद वहाँ से रवाना हुआ। रामदास भी उसके पीछे-पीछे चल पड़ा।
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