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भूतनाथ - खण्ड 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8360
आईएसबीएन :978-1-61301-018-1

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भूतनाथ - खण्ड1 पुस्तक का ई-संस्करण

नौवाँ बयान

अबकी दफे भूतनाथ ने प्रभाकरसिंह को बड़ी सख्ती के साथ कैद किया, पैरों में बेड़ी और हाथों में दोहरी हथकड़ी डाल दी और उसी गुफा के अन्दर रख दिया जिसमें स्वयं रहता था और उसके (गुफा के) बाहर आप चारपाई डाल रात को पहरा देने लगा।

भूतनाथ ने बहुत कुछ दम-दिलासा देकर प्रभाकरसिंह ने जमना और सरस्वती का हाल पूछा मगर उन्होने उनका कुछ भी भेद न बताया इस पर भी भूतनाथ ने प्रभाकरसिंह को किसी तरह का दुःख नहीं दिया हाँ इस बात का जरूर खयाल रक्खा कि वे किसी तरह भाग न जायँ।

इसी तरह प्रभाकरसिंह की हिफाजत करते-करते बहुत दिन गुजर गए मगर भूतनाथ की इच्छानुसार कोई कार्रवाई नहीं हुई भूतनाथ ने जमना और सरस्वती के विषय में भी पता लगाने के लिए बहुत उद्योग किया मगर कुछ नतीजा न निकला।

भूतनाथ ने अपने कई शगिर्दों को तरह-तरह का काम सुपुर्द करके चारों तरफ दौड़ाया और कइयों को सुरंग के इर्द-गिर्द घूम कर टोह लगाने के लिए मुकर्रर किया जिसकी राह से कला ने उसे खोह के बाहर किया था।

भूतनाथ को अपने शागिर्द भोलासिंह की बड़ी फिक्र थी क्योंकि वह मुद्दत से गायब था और हजार कोशिश करने पर भी उसका कुछ पता नहीं लगता था। वह भूतनाथ का बहुत ही विश्वासी शागिर्द था और भूतनाथ उसे दिल से मानता था।

एक दिन दोपहर के समय भूतनाथ अपनी घाटी से बाहर निकला और सुरंग के मुहाने पर बाहर की तरफ पेड़ों की ठण्डी छाया में टहलने लगा। सम्भव है कि वह अपने किसी शागिर्द का इन्तजार कर रहा हो। उसी समय दूर से आते हुए भोलासिंह पर उसकी निगाह पड़ी, वह बड़ी खुशी के साथ भोलसिंह की तरफ बढ़ा और भोलासिंह भी भूतनाथ को देखकर दौड़ता हुआ आया और उसके पैरों पर गिर पड़ा भूतनाथ ने भोलासिंह को गले से लगा लिया और पूछा, ‘‘इतने दिन तक तुम कहाँ थे? मुझे तुम्हारे लिए बड़ी ही फिक्र थी और दिन-रात खटके में जी लगा रहता था!’’

भोला० : गुरुजी मैं तो बड़ी आफत में फँस गया था, ईश्वर ही ने मुझे बचाया नहीं तो मैं बिल्कुल ही निराश हो चुका था।

भूत० : क्या तुम्हें किसी दुश्मन ने गिरफ्तार कर लिया था?

भोला० : जी हाँ।

भूत० : किसने?

भोला० : दो औरतों ने, जिन्हें मैं बिल्कुल ही नहीं पहिचानता।

भूत० : मालूम होता है कि तुम्हें भी जमना और सरस्वती ने गिरफ्तार कर लिया था?

भोला० : जमना और सरस्वती कौन?

भूत० : हमारे प्यारे दोस्त और मालिक दयाराम की स्त्रियाँ जिनका जिक्र मैं कई दफे तुमसे कर चुका हूँ।

भोला : हाँ-हाँ, अब मुझे याद आया, मगर आपने तो कहा था कि वे मर गईं?

भूत० : हाँ, मुझे ऐसा ही विश्वास था, मुझे क्या तमाम दुनिया यही जानती है कि दोनों मर गईं मगर अब मुझे मालूम हुआ कि वे दोनों जीती हैं और (हाथ का इशारा करके) इसी पड़ोस वाली घाटी में रहती हैं तथा उन्होंने अपने को कला और बिमला के नाम से मशूहर किया है, इसलिए कि मुझे सता कर अपना कलेजा ठंडा करें क्योंकि किसी ने दोनों को विश्वास दिलाया है कि दयाराम को भूतनाथ ही ने मार डाला है।

भोला० : शिव शिव शिव! भला यह भी कोई बात है! अच्छा तो ये सब बातें आपको किस तरह मालूम हुईं?

भूत० : मैं एक दफे उनके फंदे में पड़ गया था, वे मुझे गिरफ्तार करके अपनी घाटी में ले गईं और कैद कर दिया।

भोला० : फिर आप छूटे किस तरह से?

भूत० : वहाँ मैंने एक लौंडी को धोखा देकर अपना बटुआ जो छिन गया था मँगवा लिया, फिर कैदखाने से बाहर निकल जाना मेरे लिए कोई कठिन काम न था। इसके बाद मैंने उसी अँधेरी रात में पुनः एक लौंडी को गिरफ्तार किया और लालच दे कुछ पता लगाना चाहा मगर वह लालच में न पड़ी, तब मैंने अपने चाबुक से काम लिया, मुख्तसर यह कि वह मार खाते-खाते मर गई पर इससे ज्यादे और कुछ भी न बताया कि हाँ जमना और सरस्वती यहाँ रहती हैं और उन्होंने अपना नाम कला और बिमला रखा।

इसके बाद एक ऐसा मौका हाथ आया कि मैंने कला को पकड़ लिया उस समय मुझे विश्वास हो गया कि जमना या सरस्वती में से किसी एक को पकड लिया, मगर दिन के समय जब मैंने उसकी सूरत देखी तो मालूम हुआ कि जमना, सरस्वती दोनों में से कोई नहीं है। क्योंकि नाम बदल दिया तो क्या हुआ मैं उन दोनों को अच्छी तरह पहिचानता हूँ, मगर नहीं पानी से मुँह धुवाने पर वह शक भी जाता रहा।

इतना कह कर भूतनाथ ने अपना खुलासा हाल उसी घाटी में गिरफ्तार हो कर जाने और फिर बाहर निकलने का तथा प्रभाकरसिंह को गिरफ्तार करने का बयान किया और कहा, ‘‘मालूम होता है कि उन्हीं में से किसी ने तुम्हें गिरफ्तार कर लिया था, खैर खुलासा हाल कहो तो कुछ मालूम हो!’’

भोला० : जी हाँ, बेशक उन्हीं ने मुझे गिरफ्तार कर लिया था। जब तक मैं उनके वहाँ कैद रहा तब तक रोज उन दोनों से मुलाकात होती रही, क्योंकि वह रोज ही मुझे समझाने-बुझाने के लिए आया करती थीं, मैंने यहाँ पर एक नया ही ढंग रचा, जिस पर कई दिनों तक तो उन्हें विश्लास ही न हुआ मगर अन्त में उन्होंने मान लिया कि जो कुछ मैं कहता हूँ वह सब सच है, मैंने इन्हें यह भी समझाया कि मैं भूतनाथ का नौकर या शागिर्द नहीं हूँ बल्कि राजा सुरेन्द्रसिंह का ऐयार हूँ, जिनसे चुनार के राजा शिवदत्त से आजकल में लड़ाई हुआ ही चाहती है। महाराज सुरेन्द्रसिंह ने सुना है कि गदाधरसिंह राजा शिवदत्त की मदद पर है इस लिए उन्होंने मुझे तथा अपने कई ऐयारों को गदाधरसिंह को गिरफ्तार करने के लिए भेजा है।

भूतनाथ : (मुस्करा कर) खूब समझाया, अच्छी सूझी!

भोला० : जी हाँ, आखिर उन्हें मेरी बातों पर विश्वास हो गया और कई तरह के वादे करा के उन्होंने मुझे छोड़ दिया।

भूत० : किस राह से तुम्हें बाहर निकाला?

भोला० : सो मैं नहीं कह सकता, क्योंकि उस समय मेरी आँखों पर पट्टी बाँध दी गई थी, जब पट्ठी खोली गई तो मैंने देखा कि वहाँ बहुत-से सुन्दर और सुहाने बेल तथा पारिजात के पेड़ लगे हुए हैं और दाहिनी तरफ कई कदम की दूरी पर साफ पानी का एक सुन्दर चश्मा भी बह रहा है...

भूत० : (बात काट के) ठीक है, मैं समझ गया, मैं भी उसी सुरंग से बाहर निकाला गया था। परन्तु मैं समझता हूँ कि उसके अतिरिक्त और भी कोई रास्ता उस घाटी में जाने के लिए जरूर है क्योंकि जब मैं गिरफ्तार हुआ था तो किसी दूसरे ही मुहाने पर था। उस समय मुझे छुरी का एक जख्म लगा था जो अभी तक तकलीफ दे रहा है।

भोला० : सम्भव है, हो सकता है। इसमें आश्चर्य ही क्या है!

इसके बाद दोनों आदमी एक पत्थर की चट्टान पर बैठ कर देर तक बातें करते रहे। भूतनाथ पर जो कुछ बीती थी उसने ब्यौरेवार बयान किया और भोलासिंह ने जो कुछ कहा, बड़े गौर से सुना।

भोलासिंह भूतनाथ का बहुत ही विश्वासपात्र था इसलिये साधु महाशय की कृपा का हाल भूतनाथ ने यद्यपि अपने किसी शागिर्द या आदमी से बयान नहीं किया था मगर भोलासिंह से साफ और पूरा-पूरा बयान कर दिया। चाहे अभी यह नहीं बताया कि उस खजाने का दरवाजा किस तरह खुलता और बन्द होता है, हाँ, अन्त में इतना जरूर कह दिया कि मैं तुम्हें उस खजाने वाले घर में ले चलूँगा और दिखाऊँगा कि वहाँ कितनी बेशुमार दौलत है!

संध्या होते ही भोलासिंह को लेकर भूतनाथ अपनी अनूठी घाटी में चला गया। रास्ते में उस दरवाजे का हाल और भेद भोलासिंह को बताता गया जिसे बिमला ने बन्द कर दिया था और जिसे साधु महाशय की कृपा से भूतनाथ ने खोला था।

भोलासिंह जब उस घाटी के अन्दर पहुँच गया तो भूतनाथ ने सबसे पहिले प्रभाकरसिंह से उसकी मुलाकात कराई भोलासिंह को देखकर और यह सुन कर कि इसका नाम भोलासिंह है प्रभाकरसिंह चौंके और गौर से उसकी तरफ देखकर चुप ही रहे।

इसके बाद भोलासिंह को साथ लेकर भूतनाथ उस गुफा की तरफ रवाना हुआ जिसमें खजाना था, वह खजाना जो साधुमहाशय की कृपा से मिला था, रोशनी न करके अँधेरे ही में भोलासिंह को सुरंग के अन्दर अपने पाछे-पीछे आने के लिए भूतनाथ ने कहा और भोलासिंह भी बेखौफ कदम बढ़ाये चला गया। मगर अन्त में जब भूतनाथ खजाने के दरवाजे पर पहुँचा और वह दरवाजा खोल चुका था तब उसने ऐयारी के बटुए में से सामान निकाल कर रोशनी की और भोलासिंह को कोठरी के अन्दर आने के लिए कहा।

भूत० : देखो भोलासिंह, इस तरफ निगाह दौड़ाओ, ये सब चाँदी के देग अशर्फियों से नकानक भरे हैं। इसमें से सिर्फ एक देग मैंने खाली किया हैं।

भोला० : (देगों या हंडों की तरफ देख के) बेशक यह यह बहुत दिनों तक काम देंगे।

भूत० : बेशक, साथ ही इसके यह भी सुन रखो कि वह साधु महाराज पुनः यहाँ आवेंगे तो ऐसे और भी कई खजाने मुझे देंगे!

भोला० : ईश्वर की कृपा है अपने ऊपर! हाँ यदि आप आज्ञा दीजिए तो मैं भी जरा इन अशर्फियों के दर्शन कर लूँ।

भूत० : हाँ-हाँ, अपने हाथों से ही ढकना खोलते जाओ और देखते जाओ, बल्कि मैं यह भी हुक्म देता हूँ कि इस समय जितनी अशर्फियाँ तुमसे उठाते बने उठा लो और अपने घर ले जाकर बाल-बच्चों को दे आओ, तुम खूब जानते हो कि मैं तुम्हें अपने लड़के की तरह मानता हूँ।

भोला० : निःसन्देह ऐसा ही है मगर मैं इस समय अशर्फियाँ लेकर क्या करूँगा, आपकी बदौलत मुझे किसी बात की कमी तो है ही नहीं।

भूत० : नहीं-नहीं, तुम्हें जरूर लेना पड़ेगा।

भोला० : (कई देगों के ढकने उठाकर देखने के बाद) मगर इनमें से तो कई हंडे खाली हैं, आप कहते हैं कि सिर्फ एक ही हंडे की अशर्फिया निकाली गई हैं।

भूत० : (ताज्जुब से) क्या कई हंडे खाली पड़े हैं!

इतना कह कर भूतनाथ ने एक-एक करके उन हण्डों को देखना शुरू किया मगर यह मालूम करके आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि उसका आधा खजाना एकदम से खाली हो गया हैं अर्थात आधें हण्डों में अशर्फियों की जगह एक कौड़ी भी नहीं है।

भूत० : हैं, यह हुआ! मैं खूब जानता हूँ कि इन सब हण्डों में अशर्फियाँ भरी हुई थीं, मैंने अपने हाथ से इन सभों का ढकना उठाया था और अपनी आँखों से देखा था...

भोला० : (बात काट कर) बेशक-बेशक आपने देखा होगा मगर ब़ड़े आश्चर्य की बात है कि इतनी हिफाजत के साथ रहने पर भी अशर्फियां गायब हो गई। मैं कह तो नहीं सकता मगर हमारे साथियों में से किसी-न-किसी की नीयत...

भूत० : जरूर खराब हो गई, मैंने अपनी जुबान से इस खजाने का हाल अपने किसी साथी से भी नहीं कहा तिस पर यह हाल!

भोला० : सम्भव है कि आपके पीछे-पीछे आकर किसी ने देख लिया हो और यह भेद मालूम कर लिया हो,

भूत० : अगर ऐसा नहीं हुआ तो हुआ क्या? इसका पता लगाना चाहिए और जानना चाहिए कि हमारे साथियों में किस-किस का दिल बेईमान हो गया हैं क्योंकि इसमें तो कोई शक नहीं कि हमारे साथियों ही में से किसी ने यह चोरी की है।

भोला० : मेरा खयाल तो यह है कि कई आदमियों ने मिलकर चोरी की है।

भूत० : हो सकता है, भला तुम ही कहो कि अब मैं कब अपने साथियों का विश्वास कर सकता हूँ,

भोला० : कभी नहीं, मेरा विश्वास अब इन सभों के ऊपर से उठ गया है। हाय-हाय इतना खजाना और ऐसी नमकहरामी!

भूत० : देखो तो सही मैं कैसा इन लोगों को छकाता हूँ।

भोला० : आप जल्दी न कीजिए, एक-दो रोज और देख लीजिए।

भूत० : कहीं ऐसा न हो कि एक-दो दिन ठहरने से यह जो बचा है जाता रहे।

इतना कहकर भूतनाथ कोठरी के बाहर निकल आया और दरवाजा बन्द कर पेचोताब खाता हुआ सुरंग के बाहर हो उस तरफ रवाना हुआ जिधर उसका डेरा था।

भूतनाथ को इन अशर्फियों के गायब होने का बड़ा ही दुःख हुआ। रात के समय उसने किसी को कुछ कहना मुनासिब न समझा और चुप ही रहा, मगर रात-भर उसे अच्छी तरह नींद न आई क्रोध के मारे उसने कुछ भोजन भी नहीं किया।

भोलासिंह कुछ देर बाद उसके पास से हट गया और किसी दूसरी ही गुफा के बाहर बैठकर उसने रात बिताई, जब घंटे-भर रात बाकी रही तब वह घबड़ाया हुआ भूतनाथ के पास आया और देखा कि वह गहरी नींद में सो रहा है। भोलासिंह हाथ से हिलाकर भूतनाथ को सचेत किया। वह घबड़ाकर उठ बैठा और बोला, ‘‘ क्या हो गया है!

भोला० : मालूम होता है कि आज फिर आपकी चोरी हुई!

भूत० : सो कैसे?

भोला० : मैंने कई आदमियों को उस खजाने वाले सुरंग के अन्दर जाते और वहाँ से लदे हुए बाहर निकलते देखा है।

भूत० : मालूम होता है कि सब घाटी के बाहर निकल गये, मैं उन लोगों को नीचे उतरकर उस सुरंग में जो बाहर निकलने का रास्ता है जाते देख लपका हुआ आपके पास आया हूँ, अतः आप शीघ्र उठिए और उन लोगों का पीछा कीजिए।

भूतनाथ घबड़ाकर उठ बैठा और बोला, ‘‘जरा देख तो लो कि यहाँ से कौन-कौन गायब है?’’

भोला० : इस देखा-देखी में तो बहुत देर हो जायगी और वे लोग दूर निकल जायँगे।

भूत० : अच्छा चलो पहिले बाहर ही चलें।

दोनों आदमी तेजी के साथ पहाड़ी के नीचे उतर आए और सुरंग में घुसकर उस घाटी के बाहर निकले, यहाँ बिल्कुल ही सन्नाटा था, थोड़ी देर तक ये दोनों इधर-उधर घूमते रहे मगर जब कुछ पता न लगा तो लौटकर सुरंग के मुहाने पर चले आए और यों बातचीत करने लगे :-

भोला० : मालूम होता है कि वे लोग दूर निकल गये, किस तरफ गये हैं इसका पता लगाना जल्दी में नहीं हो सकता।

भूत० : अच्छा तो तुम घाटी के अन्दर जाओ और वहाँ जो लोग हैं उनका खयाल रखो, मैं पुनः घूमकर टोह लगाता हूँ कि वे लोग कहाँ गये।

भोला० : नहीं आप ही घाटी के अन्दर जाइए और मुझे उन लोगों का पता लगाने की आज्ञा दीजिए, क्योंकि जो लोग यहाँ से गए हैं वे अगर अपने ही आदमी हैं तो आखिर लौटकर यहाँ आवेंगे जरूर ऐसी अवस्था में ज्यादे देर तक पीछा करने की कोई जरूरत नहीं, इसके अतिरिक्त आप घाटी में जाकर इस बात का निश्चय कर सकते हैं कि वहाँ से कौन-कौन आदमी गायब हैं क्योंकि यह बात मुझे बिल्कुल ही नहीं मालूम है कि आजकल किस-किस को आपने किस-किस काम पर मुस्तैद किया है तथा घाटी के अन्दर कौन-कौन रहता है।

भूत० : ठीक है, अच्छा मैं ही घाटी के अन्दर जाकर पता लगाता हूँ कि कौन-कौन गायब है, अफसोस! सुरंग के अंदर का दरवाजा खोलना-बंद करना मैंने अपने सब आदमियों को बता दिया है अगर बताता नहीं तो काम भी नहीं चल सकता था क्योंकि नित्य ही लोग आते-जाते रहते हैं, मेरी गैरहाजिरी में भी उन लोगों को आना-जाना पड़ता था।

भोला० : ठीक है, बिना बताए काम नहीं चल सकता था।

भूत० : इसके अतिरिक्त मैंने उन सभों को यह भी हुक्म दे रखा है कि नित्य ही प्रातःकाल सूर्योदय के पहिले बारी-बारी से दो-चार आदमी घाटी के बाहर निकलकर इधर-उधर घूमा-फिरा करे, अगर वे लोग जिन्हें तुमने जाते देखा है लौटकर आवेंगे भी तो यही कहेंगे कि हम बालादवी १ के लिए बाहर गए थे, फिर उन्हें कायल करने और चोर सिद्ध करने के लिए क्या तरकीब हो सकती है? (१. घूम फिर-कर पहरा देने और लगाने को बालादवी कहते हैं।)

भोला० : ठीक ही तो है, फिर आप जानिये जो मुनासिब समझियेगा कीजियेगा मगर पहले जाकर देखिए तो सही कि कौन गायब है और उस खजाने को भी एक नजर देख लीजिएगा कि बनिस्बत कल के कुछ और भी कम हुआ है या नहीं जरूर कम हुआ होगा क्योंकि मैंने अपनी आँखों से उन लोगों की कार्रवाई देखी है।

‘‘खैर मैं जाता हूँ’’ इतना कहकर भूतनाथ घाटी के अन्दर चला गया, सबके पहिले उसने खजाने को देखना मुनासिब समझा और पहिले उसी तरफ गया जिधर खजाने वाली गुफा थी।

गुफा के अन्दर घुसकर और खजाने वाली कोठरी का दरवाजा खोल जब भूतनाथ और अन्दर गया और रोशनी करके गौर से उन हण्डों को देखा तो मालूम हुआ कि और भी कई हण्डे खाली हो गये हैं, भोलासिंह को लेकर जिस समय वह इस कोठरी में आया था उस समय जिन हण्डों या देगों में भोलासिंह ने अशर्फियाँ देखी थीं और भूतनाथ ने भी देखी थीं उनमें से चार हण्डे इस समय बिल्कुल खाली दिखाई दे रहे थे। भूतनाथ ने मन में सोचा कि ‘भोलासिंह का कहना बहुत ठीक है जरूर हमारे आदमियों ने रात को चोरी की है, खैर अब मैं इन हरामखोरों से जरूर समझूँगा। मगर मामला बड़ा कठिन आ पड़ा है। अगर इन शैतानों को यहाँ से निकाल दूँ तब भी काम नहीं चल सकता है क्योंकि यहाँ का रास्ता इन लोगों का देखा हुआ है। अब तो कुछ डरते भी हैं, फिर दुश्मनी की नियत से यहाँ छिपकर आया करेंगे, और यदि मैं खुद इस घाटी को छोड़ दूँ और बचा हुआ खजाना लेकर दूसरी जगह जा रहूँ तो बाबाजी से मुलाकात करनी है। फिर इन सभोंको निकाल देने से भी मैं निश्चिन्त नहीं हो सकता क्योंकि ये सब दुश्मन हो जायेंगे और दुश्मनों से जा मिलेंगे, इससे यही बेहतर है कि इन सभों को जान से मारकर बखेड़ा तै किया जाय!’’

इसी तरह की बातें सोचता हुआ भूतनाथ अपने डेरे की तरफ गया जहाँ प्रभाकरसिंह को कैद रखा था। वहाँ पहुँच कर देखा तो प्रभाकरसिंह भी गायब हैं। क्रोध के मारे भूतनाथ की आँखे लाल हो गईं, उसे विश्वास हो गया कि यह काम भी उसके आदमियों का ही है।

भूतनाथ ने अपनी गुफा के बाहर निकलकर इशारे की जफील बुलाई जिसके सुनते ही वे सब शागिर्द और ऐयार उसके पास आकर इकट्ठे हो गए जो इस समय वहाँ मौजूद थे, ये लोग गिनती में बाहर थे जिनमें चार आदमी कुछ रात रहते ही बालादवी के लिए चले गए थे और बाकी आठ आदमी थे जो इस समय भूतनाथ के सामने आये। कौन-कौन आदमी बाहर गया हुआ है यह पूछने के बाद भूतनाथ ने कहा –

भूत० : (सभों की तरफ देख कर) बड़े ताज्जुब की बात है कि प्रभाकरसिंह इस गुफा के अन्दर से गायब हो गये!

एक : यह तो आप ही जानिए, क्योंकि रात को आप ही उनके पहरे पर थे हम लोगों में से कोई यहाँ था नहीं?

भूत० : सो तो ठीक है मगर तुम्हीं सोचों कि यकायक यहाँ से उनका गायब हो जाना कैसी बात है!

दूसरा : बेशक ताज्जुब की बात है।

देखी थीं और भूतनाथ ने भी देखी थीं उनमें से चार हण्डे इस समय बिल्कुल खाली दिखाई दे रहे थे। भूतनाथ ने मन में सोचा कि ‘भोलासिंह का कहना बहुत ठीक है जरूर हमारे आदमियों ने रात को चोरी की है, खैर अब मैं इन हरामखोरों से जरूर समझूँगा। मगर मामला बड़ा कठिन आ पड़ा है। अगर इन शैतानों को यहाँ से निकाल दूँ तब भी काम नहीं चल सकता है क्योंकि यहाँ का रास्ता इन लोगों का देखा हुआ है। अब तो कुछ डरते भी हैं, फिर दुश्मनी की नियत से यहाँ छिपकर आया करेंगे, और यदि मैं खुद इस घाटी को छोड़ दूँ और बचा हुआ खजाना लेकर दूसरी जगह जा रहूँ तो बाबाजी से मुलाकात करनी है। फिर इन सभोंको निकाल देने से भी मैं निश्चिन्त नहीं हो सकता क्योंकि ये सब दुश्मन हो जायेंगे और दुश्मनों से जा मिलेंगे, इससे यही बेहतर है कि इन सभों को जान से मारकर बखेड़ा तै किया जाय!’’

इसी तरह की बातें सोचता हुआ भूतनाथ अपने डेरे की तरफ गया जहाँ प्रभाकरसिंह को कैद रखा था। वहाँ पहुँच कर देखा तो प्रभाकरसिंह भी गायब हैं। क्रोध के मारे भूतनाथ की आँखे लाल हो गईं, उसे विश्वास हो गया कि यह काम भी उसके आदमियों का ही है।

भूतनाथ ने अपनी गुफा के बाहर निकलकर इशारे की जफील बुलाई जिसके सुनते ही वे सब शागिर्द और ऐयार उसके पास आकर इकट्ठे हो गए जो इस समय वहाँ मौजूद थे, ये लोग गिनती में बाहर थे जिनमें चार आदमी कुछ रात रहते ही बालादवी के लिए चले गए थे और बाकी आठ आदमी थे जो इस समय भूतनाथ के सामने आये। कौन-कौन आदमी बाहर गया हुआ है यह पूछने के बाद भूतनाथ ने कहा –

भूत० : (सभों की तरफ देख कर) बड़े ताज्जुब की बात है कि प्रभाकरसिंह इस गुफा के अन्दर से गायब हो गये!

एक : यह तो आप ही जानिए, क्योंकि रात को आप ही उनके पहरे पर थे हम लोगों में से कोई यहाँ था नहीं?

भूत० : सो तो ठीक है मगर तुम्हीं सोचों कि यकायक यहाँ से उनका गायब हो जाना कैसी बात है!

दूसरा : बेशक ताज्जुब की बात है।

भूत० : इसके अतिरिक्त और भी एक बात सुनने लायक है (उँगली से बता के) इस गुफा के अन्दर हमारा खजाना रहता है, उसमें से भी आज लाखों रुपये की जमा चोरी हो गई है, इसके पहिले भी एक दफा चोरी हो चुकी है।

एक : यह तो आप और ताज्जुब की बात सुनाते हैं! भला यहाँ चोर क्योंकर आ सकता है? इसके सिवाय उस गुफा में पचासों दफे हम लोग गए हैं मगर वहाँ खजाना वगैरह तो कभी नहीं देखा, न आप ही ने हम लोगों से कहाकि वहाँ खजाना रख आये हैं।

भूत० : उस गुफा के भीतर एक दरवाजा है और उसके अन्दर जो कोठरी है उसी में खजाना था। उस दिन जो साधु महाशय आए थे उन्हीं का वह खजाना था और वे ही मुझे दे गए थे तथा वे उस कोठरी को खोलने-बन्द करने की तरकीब भी बता गए थे, मगर अब हम जो देखते हैं तो वह खजाना आधा भी नहीं रह गया।

तीसरा : अब ये सब बातें तो आप जानिए, हमें तो कभी आपने इनकी इत्तिला नहीं दी थी इसलिए हम लोगों को उस तरफ कुछ खयाल भी नहीं था।

भूत० : तो क्या हम झूठ कहते हैं?

चौथा : यह तो हम लोग नहीं कह सकते मगर इसके जिम्मेदार भी हम लोग नहीं हैं।

भूत० : फिर कौन इसका जिम्मेदार है?

चौथा : आप जिम्मेदार हैं या फिर जो चुरा ले गया है वह जिम्मेदार हैं! आप तो हम लोगों से इस तरह पूछते हैं जैसे कोई लौंडी या गुलाम से आँख दिखाकर पूछता है, हम लोग आपके पास शागिर्दी का काम करते हैं, ऐयारी सीखते हैं, आपके लिए दिन-रात दौड़ते परेशान होते हैं और हरदम हथेली पर जान लिए रहते हैं, मरने की भी परवाह नहीं करते, तिस पर आप हम लोगों को चोर समझते हैं और ऐसा बर्ताव करते हैं! यह हम लोगों के लिए एक नई बात है, आज के पहिले कभी आप ऐसे बेरुख नहीं हुए थे।

भूत० : हाँ, बेशक आज के पहिले हम तुम लोगों को ईमानदार समझते थे, यह तो आज मालूम हुआ कि तुम लोग ऐयार नहीं बल्कि चोर और बेईमान हो।

पाँचवाँ : देखिए जुबान सम्हालिए, हम लोगों को ऐसी बातें सुनने की आदत नहीं है।

भूत० : अगर आदत नहीं होती तो ऐसा काम नहीं करते।

छठा : (क्रोध में भर कर) सीधी तरह से यह क्यों नहीं कह देते कि यहाँ से चले जाओ। इस तरह इज्जत लेने और देने की जरूरत ही क्या हैं?

भूत० : वाह-वाह क्या अच्छी बात कही है। तमाम खजाना उठाकर हजम कर जाओ और इसके बदले में हम बस इतना ही कहकर रह जायं कि चले जाओ।

इस तरह की बातें हो रही थीं कि वे बाकी के चार आदमी भी आ गये जो बालादवी के लिए कुछ रात रहते घाटी के बाहर निकल गये थे, भूतनाथ ने उन सभों से भी इस तरह की बातें की और अच्छी तरह डाँट बताई। उन लोगों ने भी इसकी जानकारी से इनकार किया और कहा कि हम लोगों को कुछ भी नहीं मालूम कि कहाँ आपका खजाना रहता है, कब कौन उठाकर ले गया तथा प्रभाकरसिंह को किसने यहाँ से भगा दिया।

भूतनाथ बड़ा ही लालची आदमी था, रुपये-पैसे के लिए वह बहुत जल्द बेमुरौवत बन जाता था रुपये-पैसे के विषय में वह किसी का एतबार ही नहीं करता था।

आज उसकी बहुत बड़ी रकम गायब हो गई थी और मारे क्रोध के वह जल-भुन कर खाक हो गया था। अपने आदमियों पर उसने इतनी ज्यादे सख्ती की और ऐसे बुरे शब्दों का प्रयोग किया कि वे सब एकदम बिगड़ खड़े हुए क्योंकि ऐयार लोग इस तरह की बेइज्जती बर्दाश्त नहीं कर सकते।

इन आदमियों या शागिर्दों के अतिरिक्त भूतनाथ के पास और भी कई आदमी थे जो दूसरी जगह रहते थे तथा तथा और कामों पर मुकर्रर कर दिए गए थे मगर इस घाटी के अन्दर आजकल ये ही बारह आदमी रहते थे जो आज भूतनाथ की बातों से नाराज होकर बेदिल हो गए थे मगर भूतनाथ ने उन्हें सीधी तरह जाने भी नहीं दिया बल्कि तलवार खैंचकर सभों को सजा देने के लिए तैयार हो गया।

भूतनाथ की कमर में वही अनूठी तलवार थी जो उसने प्रभाकरसिंह से पाई थी, इस तलवार को वह बहुत प्यार करता था और उसे अपनी फतहमन्दी का सितारा समझता था। उसके आदमियों को इस बात की कुछ खबर न थी कि इस तलवार में कौन-सा गुण है अस्तु लाचार हो वे लोग भी खंजर और तलवारें खींच मुकाबला करने के लिए तैयार हो गए।

भूतनाथ अकेला ही सभों से लड़ने को तैयार हो गया बल्कि बहुत देर तक लड़ा भूतनाथ के बदन पर छोटे-छोटे कई जख्म लगे मगर भूतनाथ के हाथ की तलवार का जिसको जरा-सा चरका लगा वह बेकार हो गया और तुरन्त बेहोश होकर जमीन पर गिर गया, यह देख उन लोगों को बड़ा ही ताज्जुब हो रहा था, थोड़ी ही देर में कुल आदमी जख्मी होने के कारण बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़े। और भूतनाथ ने सभों की मुश्कें बाँध कर गुफा में कैद कर दिया।

इसके बाद भूतनाथ घाटी के बाहर निकला और भोलासिंह की खोज में चारों तरफ घूमने लगा मगर तमाम दिन बीत जाने पर भी भोलासिंह का कहीं पता न लगा।

सन्ध्या होने पर भूतनाथ पुनः लौट कर अपनी घाटी में आया और यह देखने के लिए उस गुफा के अन्दर गया जिसमें अपने शागिर्दों को कैद किया था कि उन सभों की बेहोशी अभी दूर हुई या नहीं, मगर अफसोस भूतनाथ ने वह तमाशा देखा जो कभी उसके खयाल में भी नहीं आ सकता था, अर्थात उसके कैदी शागिर्दों में से वहाँ एक भी मौजूद न था, हाँ उनके बदले वह सब सामान वहाँ जमीन पर जमा दिखाई दे रहा था जिससे उनके हाथ-पैर बेकार कर दिये गये थे या उनकी मुश्कें बाँधी गई थीं।

अपने शागिर्दो को कैदखाने में न देखकर भूतनाथ को बड़ा ही आश्चर्य हुआ और वह सोचने लगा कि वे सब कैदखाने में से निकलकर किस तरह भाग गये! मैं इनके हाथ-पैर बड़ी मजबूती के साथ बाँध गया था जो बिना किसी की मदद के किसी तरह भी खुल नहीं सकते थे फिर ये लोग क्योंकर निकल गये? मालूम होता है कि उनका कोई-न-कोई मददगार यहाँ जरूर आया चाहे वह मेरे शागिर्दों का दोस्त हो या मेरा दुश्मन इधर कई दिनों से ऐसी बातें हो रही हैं कि मेरी समझ में कुछ भी नहीं आता है।

क्या सम्भव है कि इन लोगों ने होश में आने के बाद आपस में मिल-जुल कर किसी तरह अपने हाथ-पैर खोल लिए हों? हाँ हो भी सकता है! अस्तु अब मुझे मानना पड़ेगा कि मेरे दुश्मनों की गिनती बढ़ गई क्योंकि वे लोग भी अब मेरे साथ जरूर दुश्मनी करेंगे और ऐसी अवस्था में मैं किस-किस का वार सम्हाला करूँगा?

मैं तो यही सोचे हुए था कि इन लोगों को एकदम मार बखेड़ा तै करूँगा क्योंकि दुश्मनों की गिनती बढ़ाना अच्छा नहीं मगर अफसोस तो यह है कि अब मैं अकेला क्या करूँगा? दो-चार साथी अगर और हैं भी तो अब उनका क्या भरोसा? ये लोग अब जरूर उनकों भी भड़कावेंगे और उन लोगों को जब यह मालूम हो जाएगा कि मैं अपने शागिर्दों को इस तरह पर सजा दिया करता हूँ तो वे लोग भी मेरा साथ छोड़ देंगे, बल्कि ताज्जुब नहीं कि भविष्य में कोई भी मेरा साथी बनना पसन्द न करे। आह मैं मुफ्त परेशानी उठा रहा हूँ, व्यर्थ का दुःख भोग रहा हूँ!

अगर अपने मालिक के पास चुपचाप बैठा रहता तो काहे को इस तरद्दुद में पड़ता, मगर अब तो मैं वहाँ भी जाना पसन्द नहीं करता क्योंकि दयाराम की दोनों स्त्रियाँ वहाँ मुझे और भी विशेष कष्ट देंगी।

अफसोस यह बात रणधीरसिंह जी ने मुझसे व्यर्थ ही छिपाई और कह दिया कि दयाराम की दोनों स्त्रियों का देहान्त हो गया, मगर जहाँ तक मैं खयाल करता हूँ इसमें उनका कसूर कुछ भी नहीं जान पड़ता सम्भव है कि मेरी तरह वे भी धोखे में डाल दिए गए हों और अभी तक उन्हें इस बात की खबर भी न हो कि जमुना और सरस्वती जीती हैं।

मगर इस घाटी को छोड़ना जरा कठिन हो रहा है। क्योंकि अगर मैं यहाँ से चला जाऊँगा तो फिर साधु महाशय से मुलाकात न होगी और मैं उस दौलत को न पा सकूँगा जो उनकी बदौलत मिलने वाली है मगर यहाँ का रहना भी अब कठिन हो रहा है। अच्छा कुछ दिन के लिए इस स्थान को अब छोड़ ही देना चाहिए और जो कुछ बचा हुआ खजाना है उसे निकाल ले जाना चाहिए।

इस तरह की बातें सोचता हुआ भूतनाथ उस गुफा की तरफ रवाना हुआ जिसमें उसका खजाना था। जब गुफा के अन्दर जाने के बाद रोशनी लिए हुए खजाने वाली कोठरी में पहुँचा तो देखा कि अब उन हण्डों में एक अशर्फी बाकी नहीं है, सब-की-सब गायब हो गई बल्कि वे हण्डे तक भी अब नहीं दिखाई देते जिनमें अशर्फियाँ रक्खी गई थीं। भूतनाथ का दिमाग हिल गया और वह अपना सिर पीट कर उसी जगह बैठ गया।

थोड़ी देर बाद भूतनाथ उठा और मोमबत्ती रोशनी में उसने उस कोठरी को अच्छी तरह देखा, इसके बाद दरवाजा बन्द करके निकल आया और गुफा की जमीन को बड़े गौर से देखता तथा यह सोचता हुआ पहाड़ी के नीचे उतर गया कि ‘‘अब यहाँ रहना उचित नहीं है’’

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