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भूतनाथ - खण्ड 1

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8360
आईएसबीएन :978-1-61301-018-1

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भूतनाथ - खण्ड1 पुस्तक का ई-संस्करण

तेरहवाँ बयान

प्रेमी पाठक महाशय, अभी तक भूतनाथ के विषय में जो कुछ हम लिख आये हैं उसे आप भूतनाथ के जीवन की भूमिका ही समझें, भूतनाथ का मजेदार हाल जो अद्भुत घटनाओं से भरा हुआ है पढ़ने के लिए अभी आप थोड़ा-सा और सब्र कीजिए, अब उसका अनूठा किस्सा आया ही चाहता है, यद्यपि चन्द्रकान्ता सन्तति में प्रभाकरसिंह और इन्दुमति का नाम नहीं आया है मगर भूतनाथ की जीवनी का इन दोनों व्यक्तियों से बहुत ही घना सम्बन्ध है और भूतनाथ की बरबादी या ढिठाई का जमाना शुरू होने के बहुत दिन पहिले ही से भूतनाथ का इन दोनों से वास्ता पड़ चुका था और इन्हीं दोनों के सबब से इन्द्रदेव और दलीपशाह के ऊपर भी भूतनाथ की निगाह पड़ चुकी थी।

इसलिए हमें सबसे पहिले प्रभाकरसिंह और इन्दुमति का परिचय देना पड़ा, तथापि आपको आगे चलकर प्रभाकरसिंह और इन्दुमति की अवस्था पर आश्चर्य करना पड़ेगा।

यद्यपि इन्दुमति का पता न लगने से प्रभाकरसिंह को बहुत दुःख हुआ परंतु इन्द्रदेव का खयाल उन्हें ढाढ़स दे रहा था। वे समझते थे कि इन्दुमति अपनी दोनों बहिनों के साथ जरूर इन्द्रदेव के यहाँ होंगी, अस्तु सबसे पहिले इन्द्रदेव के यहाँ चल कर उसका पता लगाना चाहिए, इस बात का निश्चय कर गुलाबसिंह को साथ लिए हुए प्रभाकरसिंह इन्द्रदेव से मिलने के लिए रवाना हुए।

जमना और सरस्वती की जुबानी प्रभाकरसिंह को मालूम हो चुका था कि इन्द्रदेव वास्तव में किसी तिलिस्म के दारोगा हैं परंतु इन्द्रदेव ने अपने को ऐसा मशहूर नहीं किया था और न साधारण लोगों को उनके विषय में ऐसा खयाल ही था। उसके मुलाकातियों में से भी बहुत कम आदमियों को यह बात मालूम थी कि इन्द्रदेव किसी तिलिस्म के दारोगा हैं और यदि कोई इस बात को जानता भी था तो उसे तिलिस्म के विषय में कुछ ज्ञान ही न था।

अगर कोई इन्द्रदेव से तिलिस्म के विषय में कुछ पूछता भी तो इन्द्रदेव समझा देते कि यह सब दिल्लगी की बातें हैं हाँ, दो-चार आदमियों को इस बात का पूरा-पूरा विश्वास था कि इन्द्रदेव किसी भारी तिलिस्म के दारोगा हैं, मगर अपनी जुबान से उन्हें भी पूरा-पूरा पता नहीं लगने देते थे, इसके अतिरिक्त इन्द्रदेव का रहन-सहन ऐसा था कि किसी को उनके विषय में जानने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी और न वे विशेष दुनियादारी के मामले में ही पड़ते थे, वह वास्तव में साधु और महात्मा की तरह अपनी जिन्दगी बिताते थे मगर ढंग उनका अमीराना था।

मतलब यह है कि सर्वसाधारण को इन्द्रदेव के विषय में पूरा-पूरा ज्ञान नहीं था, हाँ इतना जरूर मशहूर था कि इन्द्रदेव ऊँचे दर्जे के ऐयार हैं और उनके बुजुर्गों ने ऐयारी के फन में बहुत दौलत पैदा की हैं जिसकी बदौलत आज तक इन्द्रदेव बहुत रईस और अमीर बने हुए हैं।

यह सब कुछ था सही परंतु इन्द्रदेव के दो-चार दोस्त ऐसे भी थे जिन्हें इन्द्रदेव का पूरा-पूरा हाल मालूम था, मगर इन्द्रदेव की तरह वे लोग भी इस बात को मंत्र की भाँति छिपाये रहते थे।

इन्द्रदेव का रहने का स्थान कैसा था और वहाँ जाने के लिए कैसी-कैसी कठिनाइयाँ उठानी पड़ती थीं इसका हाल चन्द्रकान्ता सन्तति में लिखा जा चुका है यहाँ पुनः लिखने की कोई आवश्यकता नहीं है, हाँ इतना कह देना आवश्यक जान पड़ता है कि जिन दिनों का हाल इस जगह लिखा जा रहा है उन दिनों इन्द्रदेव निश्चित रूप से उस तिलिस्मी घाटी ही में नहीं रहा करते थे बल्कि अपने लिए उन्होंने एक मकान तिलिस्मी घाटी के बाहर उसके पास ही एक पहा़ड़ी पर बनवाया हुआ था जिसका नाम ‘‘कैलाश’’ रखा था और इसी मकान में वह ज्यादा रहा करते थे, हाँ, जब जमाने के हाथों से वह ज्यादे सताये गये और उन्होंने उदास होकर दुनिया ही को तुच्छ समझ लिया तब उन्होंने बाहर का रहना एकदम से बन्द कर दिया जैसाकि चन्द्रकान्ता सन्तति में लिखा जा चुका है।

प्रभाकसिंह जब इन्द्रदेव से मिलने गये तब उस ‘‘कैलाश भवन’’ में मुलाकात हुई। उन दिनों इन्द्रदेव बीमार थे, यद्यपि उनकी बीमारी ऐसी न थी कि चारपाई पर पड़े रहते परन्तु घर के बाहर निकलने योग्य भी वह न थे।

प्रभाकरसिंह और गुलाबसिंह से मिल कर इन्द्रदेव ने बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और बड़ी खातिरदारी से इन दोनों को अपने यहाँ रखा प्रभाकरसिंह और गुलाबसिंह ने भी इन्द्रदेव की बीमारी पर खेद प्रकट किया और इसी के साथ अपने आने का सबब भी प्रभाकरसिंह ने बयान किया जिसे सुन कर इन्द्रदेव की आँखें डबडबा आईं और एकान्त होने पर उन दोनों में इस तरह बातचीत होने लगी, इस बात-चीत में गुलाबसिंह शरीक नहीं थे।

इन्द्र : प्रभाकरसिंह, तुम्हें यह सुन कर बहुत दुःख होगा कि तुम्हारी स्त्री इन्दुमति हमारे यहाँ नहीं है तथा जमना और सरस्वती का भी कुछ पता नहीं लगता कि वे दोनों कहाँ गायब हो गईं, अफसोस उन दोनों ने मेरी शिक्षा पर कुछ ध्यान नहीं दिया और अपनी बेवकूफी से अपने को थोड़े ही दिनों में जाहिर कर दिया। अगर वे मेरी आज्ञानुसार अपने को छिपाये रहतीं और धीरे-धीरे करती तो धोखा न उठातीं।

प्रभा० : (दुःखित चित्त से) निःसन्देह ऐसा ही है, उस घाटी में पहिले जब मुझसे मुलाकात हुई थी तब उन्होंने कहा था कि ऐसे स्थान में रह कर भी हम लोग अपने को हर वक्त छिपाये रहती हैं, यहाँ तक कि अपनी लौंडियों को भी अपनी असली सूरत नहीं दिखाई...

इन्द० : (बात काट के) बेशक ऐसी ही बात थी और मैंने ऐसा ही प्रबन्ध कर दिया था कि उनके साथ रहने वाली लौंडियों को भी इस बात का ज्ञान न था कि ये दोनों वास्तव में जमना-सरस्वती हैं, वे सब उन दोनों को कला और बिमला ही जानती थीं। मगर इस बात को जमना ने बहुत जल्द चौपट कर दिया और लौंडि़यों पर भरोसा करके शीघ्र ही अपने को प्रकट कर दिया। अगर लौंडियों को यह भेद मालूम न हो गया होता तो भूतनाथ की समझ में खाक न आता कि वे दोनों कौन है और क्या चाहती हैं।

प्रभा० : आपका कहना बहुत ठीक हैं।

इन्दु० : बड़ों ने सच कहा है कि स्त्रियों के विचार में स्थिरता नहीं होती और वे किसी भेद को ज्यादे दिनों तक छिपा नहीं सकतीं, कइयों का कथन तो यह हैं कि स्त्रियों की बुद्धि प्रलय करने के सिवाय और मैं क्या कहूँ, इन बखेड़ों में मैं तो व्यर्थ ही पीसा गया, मेरे हौंसले सब मटियामेट हो गये और मैं भी न रहा।

प्रभा० : मैं क्या कहूँ कैसी उम्मीदें अपने साथ लेकर आपके पास आया था, मगर ...

इन्दु० : प्रभाकरसिंह, तुम एकदम से हताश न हो जाओ और उद्योग का पल्ला मत छोड़ो। क्या कहूँ, मैं बहुत दिनों से बीमार पड़ा हुआ हूँ और इस योग्य नहीं कि स्वयं कुछ कर सकूँ तथापि मैंने अपने कई आदमी उन सभों की खोज में दौड़ा रखे हैं। दलीपशाह का भी बहुत दिनों से पता नहीं हैं, वे भी उन सभों के साथ ही गायब हैं।

प्रभा० : और भूतनाथ?

इन्द्र : भूतनाथ अपने मालिक के यहाँ स्थिर भाव से बैठा हुआ है मुद्दत से वह कहीं आता-जाता नहीं है, रणधीरसिंह जी को जो उसकी तरफ से रंज हो गया था उसे भी भूतनाथ ने ठीक कर लिया।

अब तो ऐसा मालूम होता हैं कि मानों भूतनाथ ने कभी रंग बदला ही न था। इधर सालःभर में चार-पाँच कफे भूतनाथ मुझसे मिलने के लिए आया था मगर जमना और सरस्वती के विषय में न तो मैंने ही कुछ जिक्र किया और न उसने ही कुछ छेड़ा, यद्यपि मालूम होता है कि भूतनाथ उसी विषय में छेड़छाड़ करने के लिए आया था मगर मैंने कुछ चर्चा उठाना मुनासिब न समझा।

प्रभा० : अस्तु अब क्या करना चाहिए सो कहिये मैं तो आपका बहुत भरोसा रख के यहाँ आया था परन्तु यह जान कर मुझे आश्चर्य हुआ कि आपने जमना सरस्वती के लिए कुछ भी नहीं किया।

इन्द्र : ऐसा मत कहो मैंने उन सभों के लिए बहुत उद्योग किया मगर लाचार हूँ कि उद्योग का कोई अच्छा नतीजा न निकला, हाँ यह जरूर मानना पड़ेगा कि मैं स्वयं अपने हाथ-पैर से कुछ न कर सका। इसका सबसे बड़ा सबब तो यह है कि मैं इस मामले में अपने को प्रकट करना उचित नहीं समझता। दूसरे बीमारी से भी लाचार हो रहा हूँ, खैर जो कुछ होना था सो तो हो गया, अब तुम आ गये हो तो उद्योग करो। ईश्वर तुम्हारी सहायता करेगा और मैं भी हर तरह से तुम्हारी मदद के लिए तैयार हूँ, मेरी प्रबल इच्छा है कि किसी तरह उन तीनों का पता लगे, यदि मुझे इस बात का निश्चय हो जायगा कि उन तीनों से भूतनाथ ने कोई अनुचित व्यवहार किया हैं तो मैं निःसन्देह भूतनाथ से बदला लूँगा मगर जब तक इस बात का निश्चय न होगा मैं कदापि भूतनाथ से सम्बन्ध न तोड़ूँगा, हाँ, तुम्हें हर तरह से मदद बराबर देता रहूँगा।

प्रभा० : अच्छा तो फिर मुझे शीघ्र बताइये कि अब क्या करना चाहिए, अब मुझसे बैठे रहने की सामर्थ्य नहीं है।

इन्द्र : जल्दी न करो, मैं सोच-विचार कर कल तुमसे कहूँगा कि अब क्या करना चाहिए, एक दिन के लिए और सब्र करो।

प्रभा० : जो आज्ञा, परन्तु....

लाचार होकर प्रभाकरसिंह को इन्द्रदेव की बात माननी पड़ी परन्तु इस बात का उनको आश्चर्य बना ही रहा कि इन्द्रदेव ने जमना और सरस्वती के लिए इतनी सुस्ती क्यों की और वास्तव में जमना और सरस्वती गायब हो गई हैं या इसमें भी कोई भेद है।

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