मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 1 भूतनाथ - खण्ड 1देवकीनन्दन खत्री
|
10 पाठकों को प्रिय 348 पाठक हैं |
भूतनाथ - खण्ड1 पुस्तक का ई-संस्करण
चौदहवाँ बयान
अब हम कुछ हाल जमना, सरस्वती और इन्दुमति का बयान करना उचित समझते हैं, जब महाराज शिवदत्त से बदला लेने का विचार करके प्रभाकरसिंह नौगढ़ की तरफ रवाना हो गये उनके चले जाने के बाद बहुत दिनों तक जमना और सरस्वती को कोई भी ऐसा मौका हाथ न आया कि भूतनाथ से कुछ छेड़छाड करें और न भूतनाथ ही ने उनके साथ कोई बदसलूकी की, हाँ यह जरूर होता रहा कि जमना और सरस्वती भूतनाथ की घाटी में ताकझाँक करके इस बात की बराबर टोह लगाती रहीं कि भूतनाथ क्या करता है अथवा किस धुन में है।
थोड़ी ही दिनों में उन दोनों को मालूम हो गया कि भूतनाथ अब इस घाटी में नहीं रहता। न–मालूम वह कहीं चला गया या उसने जगह बदल दी बहुत दिनों तक उनकी लौड़ियाँ और ऐयार इस विषय का पता लगाने के लिए इधर-उधर दौड़ती रहीं मगर सफल-मनोरथ न हो सकीं, कुछ दिन बीत जाने के बाद यह मालूम हुआ कि भूतनाथ अपने मालिक रणधीरसिंह के यहाँ चला गया तथा बराबर एक चित्त से उन्हीं का काम किया करता है और उन्हीं के यहाँ स्थिर भाव से रहता है, अब भूतनाथ से बदला लेना कठिन हो गया तथा अब बिना प्रकट भये काम नहीं चलेगा।
कई दफे दोनों ने सोचा कि रणधीर सिंह के यहाँ चली जायें और जो कुछ मामला हो चुका है उसें साफ कह के भूतनाथ को सजा दिलावें, परन्तु इन्द्रदेव ने ऐसा करने से मना किया और समझाया कि अगर तुम वहाँ चली जाओगी तो रणधीरसिंह मुझसे इस बात के लिए रंज हो जायेंगे कि मैंने इतने दिनों तक तुम दोनों को छिपा रक्खा और झूठ ही मशहूर कर दिया कि जमना और सरस्वती मर गयीं, साथ ही इसके हमसे और भूतनाथ से भी खुल्लम-खुल्ला लड़ायी हो जायगी, केवल इतना ही नहीं, यह भी सोच रखना चाहिये कि रणधीरसिंह भूतनाथ का कुछ बिगाड़ न सकेंगे, सिवाय इसके कि उसे अपने यहाँ से निकाल दें बल्कि ताज्जुब नहीं कि भूतनाथ रणधीरसिंह से रंज होकर उन्हें भी किसी तरह की तकलीफ पहुँचावे।
इन्द्रदेव का यह विचार भी बहुत ठीक था, इसलिए दोनों बहुत दिनों तक चुप-चाप बैठी रह गयीं और रणधीरसिंह के यहाँ भी न गईं।
इसी तरह सोचते-विचारते और समय का इन्तजार करते वर्षों बीत गये और इस बीच में जमना, सरस्वती और इन्दुमति प्रायः घूमने-फिरने के लिए इस घाटी से बाहर निकलती रहीं।
एक दिन माघ के महीने में दोपहर के समय अपनी कई लौंडियों को साथ लिए हुए वे तीनों भेष बदले हुए उस घाटी के बाहर निकलीं और जंगल में चारों तरफ घूम-फिरकर दिल बहलाने लगीं, यकायक उनकी निगाह एक मरे हुए घोड़े पर पड़ी जिस पर अभी तक चारजामा कसा हुआ था। वे सब ताज्जुब में आकर उसके पास गईं और गौर से देखने लगीं, यह घोड़ा कई जगह से जख्मी हो रहा था जिससे गुमान होता था कि किसी लड़ाई में इसके सवार ने बहादुरी दिखाई और अन्त में किसी सबब से यह भाग निकला है। संभव है इसका सवार लड़ाई में गिर गया हो। मगर इस बात पर भी बिमला का विचार नहीं जमा वह यही सोचती थी कि जरूर यह अपने सवार को लेकर भागा है, अस्तु बिमला आँख फैलाकर चारों तरफ इस खयाल से देखने लगी कि शायद इस घोड़े की तरह गिरा हुआ कोई आदमी भी कहीं दिखाई दे जाय।
बिमला, कला और इन्दुमति घूम-घूमकर इसका पता लगाने लगीं और आखिर थोड़ी देर में एक आदमी पर उनकी निगाह पड़ी, ये सब तेजी के साथ घबराई हुई उसके पास गईं और देखा कि प्रभाकरसिंह बेहोश पड़े हुए हैं, उनका कपड़ा खून से तरबतर हो रहा है, और उनके बदन में कई जगह तलवार के जख्म लगे हुए हैं तथा सर में भी एक भारी जख्म लगा हुआ हैं जिससे निकले हुए खून के छींटे चेहरे पर अच्छी तरह पड़े हुए हैं। लड़ाई के समय जो तलवार उनके हाथ में थी इस समय भी उसका कब्जा उनके हाथ ही में है।
प्रभाकरसिंह को इस अवस्था में देखते ही इन्दुमति एक दफे चिल्ला उठी और उसकी आँखों में आँसू भर आए, परन्तु तुरन्त ही उसने अपने दिल को सम्भाल लिया तथा जमना और सरस्वती की तरफ देखा जिनकी आँखों से आँसू की धारा बह रही थी और जो बड़े गौर से प्रभाकरसिंह के चेहरे पर निगाह जमाये हुए थीं।
इन्दु० : (जमना से) बहिन, तुम इनके चेहरे की तरफ क्या देख रही हो? जो बातें देखने लायक हैं पहिले उन्हें देखो इसके बाद रोने-धोने का खयाल करना।
जमना : (ताज्जुब से) सो क्या है?
इन्दु० : पहिले तो यह देखो कि इनके पीठ में भी कोई जख्म लगा है या नहीं जिससे यह मालूम हो सके कि इन्होंने लड़ाई में पीठ नहीं दिखाई है, इसके बाद इस बात की जाँच करो कि इनमें कुछ दम है या नहीं, अगर इन्होंने लड़ाई में वीरता दिखाई और बहादुरी के साथ प्राण-त्याग किया है तो कोई चिन्ता नहीं मैं बड़ी प्रसन्नता से इनके साथ सती होकर कर्तव्य पूरा करूँगी, और इनके हाथ की तलवार मुझे विश्वास दिलाती है कि उन्होंने लड़ाई में पीठ नहीं दिखाई।
जमना : मेरा भी यही खयाल है, और वीर पत्नियों के लिए रोना कैसा?
उन्हें तो हरदम अपने पति के साथ जाने के लिए तैयार रहना चाहिए।
सरस्वती : (प्रभाकरसिंह की नाक पर हाथ रख कर) जीते हैं! जख्मी होने के सबब से बेहोश हो गये हैं!!
सरस्वती की बात सुनकर जमना और इन्दुमति ने भी उन्हें अच्छी तरह देखा और निश्चय कर लिया कि प्रभाकरसिंह मरे नहीं हैं और इलाज करने से बहुत जल्द अच्छे हो जायेगें, अब पुनः इन्दुमति की आँखों से आँसू की धारा बहने लगी तथा जमना और सरस्वती ने उसे समझाया और दिलासा दिया इसके बाद सब कोई मिल-जुल कर प्रभाकरसिंह को उठाकर घाटी के अन्दर ले गईं और बँगले के बाहर दालान में एक सुन्दर चारपाई पर लेटाकर उन्हें होश में लाने का उद्योग करने लगीं।
मुँह पर केवड़ा और बेदमुश्क छिड़कने तथा लखलखा सुँघाने से थोड़ी ही देर में प्रभाकरसिंह चैतन्य हो गए और जमना की तरफ देखकर बोले, ‘‘मैं कहाँ हूँ?’’
जमना : आप घाटी में हैं जहाँ हम दोनों बहिनों तथा इन्दुमति से मुलाकात हुई थी।
प्रभा० : (चारों तरफ देख कर) ठीक है, मगर मैं यहाँ कैसे आया?
जमना : पहिले यह बताइये कि आपकी तबीयत कैसी है?
प्रभा० : अब मैं अच्छा हूँ, होश में हूँ और सब कुछ समझ सकता हूँ मगर आश्चर्य में हूँ कि यहाँ कैसे आया!
जमना : हम लोग घाटी के बाहर घूमने के लिए गई हुई थीं जहाँ आपको बेहोश पड़े हुए देख कर उठा लाईं, उस जगह एक घोड़ा भी मरा हुआ दिखाई दिया कदाचित वह आप ही का घोड़ा हो।
प्रभा० : बेशक वह मेरा ही घोड़ा होगा, जानवर होकर भी उसने मेरी बड़ी सहायता की और आश्चर्य है कि इतनी दूर तक उड़ाये हुए ले आया।
इन्दु० : क्या वह घोड़ा लड़ाई में से आपको भगा लाया था?
प्रभा० : हाँ, लड़ाई ऐसी गहरी हो गई थी कि संध्या हो जाने पर भी दोनों तरफ की फौजें बराबर दिल तोड़कर लड़ती ही रह गईं यहाँ तक कि आधी रात हो जाने पर मैं और महाशय सुरेन्द्रसिंह का सेनापति तथा कुँअर बीरेन्द्रसिंह लड़ते हुए दुश्मन की फौज में घुस गये और मारते हुए उस जगह पहुँचे जहाँ कम्बख्त शिवदत्त खड़ा हुआ अपने सिपाहियों को लड़ने के लिए ललकार रहा था, चाँद की रोशनी खूब फैली हुई थीं और बहुत से माहताब भी जल रहे थे इसलिए एक-दूसरे के पहिचानने में किसी तरह तकलीफ नहीं मालूम हो सकती थी।
महाराज शिवदत्त मुझे अपने सामने देखकर झिझका और घोड़ा घुमाकर भागने लगा, मगर मैंने उसे भागने की मोहलत नहीं दी और एक हाथ तलवार का उसके सर पर ऐसा मारा कि वह घोड़े की पीठ पर से लुढ़क कर जमीन पर आ रहा मुझे उस समय बहुत जख्म लग चुके थे और मैं सुबह से उस समय तक बराबर लड़ते रहने के कारण बहुत ही सुस्त हो रहा था। जिस पर महाराज शिवदत्त के गिरते ही बहुत-से दुश्मनों ने एक साथ मुझ पर हमला किया और चारों तरफ से घेर कर मारने लगे मगर मैं हताश न हुआ, दुश्मनों के वार को रोकता और तलवार चलाता हुआ उस मण्डली को चीरकर बाहर निकला, उस समय मेरा सर घूमने लगा और मैं दोनों हाथों से घो़ड़े का गला थाम उससे चिपट गया।
फिर मुझे कुछ भी खबर न रही मैं नहीं कह सकता कि इसके आगे क्या हुआ!
इन्दु० : (प्रसन्न होकर) बेशक आपने बड़ी बहादुरी की। घोड़ा भी उस समय समझ गया कि अब बेहोश हो गए हैं और इसलिए आपको वहाँ से ले भागा।
प्रभा० : बेशक ऐसा ही हुआ होगा।
जमना : अब आप आज्ञा दीजिए तो कपड़े उतार कर आपके जख्म धोये जायँ।
प्रभा० : जरा और ठहर जाओ क्योंकि मैं उठकर मैदान जाने का इरादा कर रहा हूँ। जख्म मुझे बहुत गहरे नहीं लगे हैं, इन पर कुछ दवा लगाने की जरूरत न पड़ेगी, केवल धोकर साफ कर देना ही काफी होगा! मेरे लिए एक धोती और गमछे का बन्दोबस्त करो और आदमी सहारा देकर उठाओ तथा मैदान की तरफ ले चलो।
जमना : बहुत अच्छा, ऐसा ही होगा।
इतना कहकर जमना ने एक लौंडी की तरफ देखा, वह सामान दुरूस्त करने के लिए वहाँ से चली गई दूसरी लौंडी ने बाहर जाने के लिए जल का लोटा भरकर अलग रख दिया। प्रभाकर सिंह ने उठने का इरादा किया। जमना, सरस्वती और इन्दु ने सहारा देकर उन्हें उठाया बल्कि खड़ा कर दिया। जमना इन्दु का हाथ थामे हुए प्रभाकरसिंह धीरे-धीरे वहाँ से मैदान की तरफ रवाना हुए तथा पीछे कई लौंडियाँ भी जाने लगीं, उस समय वहाँ हरदेई लौंडी भी मौजूद थी जिसका हाल ऊपर के बयान में लिख आए हैं। हरदेई ने जल से भरा हुआ लोटा उठा लिया और प्रभाकरसिंह के साथ जाने लगी।
कुछ दूर आगे जाने पर प्रभाकरसिंह ने कहा ‘‘इस तरह चलने और घूमने से तबीयत साफ हो जाती है, तुम लोग अब ठहर जाओ मैं अब सिर्फ एक लौंडी के हाथ का सहारा लेकर और आगे जाऊँगा,’’ इतना कहकर प्रभाकरसिंह ने हरदेई की तरफ देखा और जमना तथा इन्दु का हाथ छोड़ दिया, हरदेई जल का लोटा लिए आगे बढ़ आई और अपने दूसरे हाथ से प्रभाकरसिंह का हाथ थाम कर धीरे-धीरे आगे की तरफ बढ़ी।
जमना, सरस्वती और इन्दुमति वहाँ से पीछे हटकर एक सुन्दर चट्टान पर बैठ गईं और इन्तजार करने लगीं कि प्रभाकरसिंह मैदान से होकर लौटें और चश्में पर जाय तो हम लोग भी उनके पास चलें मगर ऐसा न हो सका क्योंकि घण्टे-भर से भी कम देर में सब कामों से छुट्टी पाकर हरदेई के हाथ का सहारा लिए हुए प्रभाकरसिंह धीरे-धीरे चलते हुए उस जगह आ पहुँचे जहाँ जमना सरस्वती और इन्दुमति बैठी हुई उनका इन्तजार कर रही थीं जख्मों के विषय में सवाल करने पर प्रभाकरसिंह ने उत्तर दिया कि नहर के जल से मैं सब जख्मों को साफ कर चुका हूँ अब उनके विषय में चिन्ता करने की कोई जरूरत नहीं है।
प्रभाकरसिंह भी उन तीनों के पास बैठ गये और लड़ाई के विषय में तरह-तरह की बातें करने लगे, जब संध्या होने में थोड़ी देर रह गई और हवा में सर्दी बढ़ने लगी तब सब कोई वहाँ से उठ कर बँगले के अन्दर चले गये एक कमरे के अन्दर जाकर प्रभाकरसिंह चारपाई पर लेट रहे थोड़ी देरतक वहां सन्नाटा रहा क्योंकि जरूरी कामों से छुट्टी पाने तथा भोजन की तैयारी करने के लिए जमना और सरस्वती वहाँ से चली गईं और केवल चारपाई की पाटी पकड़े हुए इन्दुमति तथा पैर दबाती हुई हरदेई वहाँ रह गई।
कुछ देर बाद प्रभाकरसिंह ने इन्दुमति को यह कह कर बिदा किया कि ‘मैं भूख से बहुत दुःखी हो रहा हूँ, जो कुछ तैयार हो थोड़ा-बहुत खाने के लिए जल्द लाओ।’
आज्ञानुसार इन्दुमति वहाँ से उठ कर कमरे के बाहर चली गई और तब प्रभाकरसिंह और हरदेई में धीरे-धीरे इस तरह की बातचीत होने लगी-
प्रभा० : हाँ, तुम्हें दरवाजा खोलने का ढंग अच्छी तरह मालूम हो चुका है?
हरदेई : जी हाँ, उसके लिए कोई चिन्ता न करें।
प्रभा० : मैं तो इसी फिक्र में लगा हुआ था कि पहले किसी तरह दरवाजा खोलने की तरकीब मालूम कर लूँ तब दूसरा काम करूँ।
हरदेई : नहीं, अब आप अपनी कार्रवाई कीजिए, सुरंग का दरवाजा खोलना और बन्द करना अब मेरे लिए कोई कठिन काम नहीं है।
प्रभा० : (अपने जेब में से एक पुड़िया निकाल कर और हरदेई के हाथ में दे कर) अच्छा तो अब तुम इस दवा को भोजन के किसी पदार्थ में मिला देने का उद्योग करो, फिर मैं समझ लूँगा।
हरदेई : अब इन्दुमति आ जायँ तो मैं जाऊँ।
प्रभा० : हाँ मेरी भी यही राय है।
थोड़ी देर बाद चाँदी की रकाबी में कुछ मेवा लिए हुए इन्दुमति वहाँ आ पहुँची उसके साथ एक लौंडी चाँदी के लोटे में जल और एक गिलास लिए हुए थी।
प्रभाकरसिंह ने मेवा खाकर जल पीया और इसी बीच में हरदेई किसी काम के बहाने से उठ कर कमरे के बाहर चली गई।
|