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नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
पाँचवाँ दृश्य
(रमानाथ का कमरा। अंधकार के कारण कुछ नहीं सूझता। केवल सिसकियों और उलहनों के स्वर उठते हैं।)
जालपा—(सिसककर) तुमने यह सारी आफतें झेलीं, पर हमें एक पत्र तक न लिखा। क्यों लिखते, हमसे नाता ही क्या था? मुँह देखे की प्रीत थी। आँख ओट पहाड़ ओट!
रमानाथ—यह बात नहीं थी, जालपा! दिल पर जो कुछ गुजरती थी, दिल ही जानता है लेकिन लिखने का मुँह भी तो हो! जब मुँह छिपा कर घर से भागा तो अपनी विपत्ति क्या लिखने बैठता? मैंने तो सोच लिया था, जब तक खूब रुपया न कमा लूँगा, एक शब्द भी न लिखूँगा।
जालपा—(आँसू और व्यंग्य) ठीक ही सोचा था, रुपये आदमी से ज्यादा प्यारे होते ही हैं। हम तो रुपये के यार हैं, तुम चाहे चोरी करो, डाका मारो, झूठी गवाही दो…
रमानाथ—(झेंप कर एकदम) नहीं प्रिये, यह बात न थी। मैं सोचता था कि इस फटेहाल जाऊँगा कैसे? सच कहता हूँ, मुझे सबसे ज्यादा डर तुम्हीं से लगता था। शायद मेरे मन में यह भाव था कि रुपये की थैली देख कर तुम्हारा हृदय कुछ नर्म होगा।
जालपा—(व्यथित स्वर) मैं शायद उस थैली को हाथ से छूती भी नहीं। तुम मुझे कितना नीच, कितना लोभी समझते हो। (दुखी हो कर) पर इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं, सरासर मेरा दोष है। मैं भली होती, तो आज यह दिन क्यों आता? मगर एक बार जिस आग में जल चुकी उसमें फिर न कूदूँगी। इन महीनों में मैंने उन पापों का कुछ प्रायश्चित किया है। शेष जीवन के अंत समय करूँगी। मैं यह नहीं कहती कि मेरी अभिलाषाएँ मिट गयीं। वे सब ज्यों की त्यों हैं। अपने परिश्रम से उन्हें पूरा कर सको तो क्या कहना। लेकिन नीयत खोटी करके एक लाख भी लाओ, तो मैं उसे ठुकरा दूंगी।
रमानाथ—अब ऐसा ही करूँगा प्रिये।
जालपा—जिस वक्त मुझे मालूम हुआ कि तुम पुलिस के गवाह बन गये मुझे बहुत दुःख हुआ। मैं इतने आदमियों का खून अपनी गर्दन पर नहीं लेना चाहती। तुम अदालत में साफ– साफ कह दो कि मैंने पुलिस के चकमें में आ कर गवाही दी थी…
रमानाथ—(चिन्तित) जब से तुम्हारा खत मिला, तभी से मैं इस प्रश्न पर विचार कर रहा हूँ, लेकिन समझ में नहीं आता क्या करूँ? एक बात कह करके मुकर जाने का साहस मुझमें नहीं है।
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