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नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
जालपा—बयान तो बदलना ही पड़ेगा।
रमानाथ—आखिर कैसे?
जालपा—मुश्किल क्या है? जब तुम्हें मालूम हो गया कि म्यूनिसिपैलिटी तुम्हारे ऊपर कोई मुकदमा नहीं चला सकती, तो फिर किस बात का डर?
रमानाथ—डर न हो, झेंप भी तो कोई चीज है। फिर मुझे कोई अच्छी जगह मिल जायगी। आराम से जिन्दगी बसर होगी।
(जालपा मौन रहती है)
रमानाथ—(एक क्षण रुक कर) और कुछ मेरी गवाही पर तो सारा फैसला नहीं हुआ जाता। बदल भी जाऊँ तो पुलिस कोई दूसरा आदमी खड़ा कर देगी। वे न बचेंगे! हाँ, मैं मारा जाऊँगा।
जालपा—(एकदम तेज हो कर) कैसी बेशर्मी की बातें करते हो जी। क्या तुम इतने गये– बीते हो कि अपनी रोटियों के लिए दूसरों का गला काटों? मैं इसे नहीं सह सकती।
रमानाथ—(चिढ़ कर) तो क्या तुम चाहती हो कि मैं यहाँ कुलीगिरी करूँ?
जालपा—नहीं, मैं यह नहीं चाहती, लेकिन अगर कुलीगिरी भी करनी पड़े, तो यह खून से तर रोटियां खाने से कहीं बढ़ कर है।
रमानाथ—(शांत हो कर) जालपा, मुझे जितना नीच समझ रही हो मैं उतना नीच नहीं हूँ। इसका दुःख मुझे भी है कि मेरे हाथों इतने आदमियों का खून हो रहा है। लेकिन परिस्थिति ने मुझे लाचार कर दिया है। मुझमें अब ठोकरें खाने की शक्ति नहीं है। तुम मुझे उस ऊँचाई पर क्यों चढ़ाना चाहती हो जहां पहुंचने की शक्ति मुझमें नहीं है?
जालपा—(तीक्ष्ण हो कर) जिस आदमी में हत्या करने की शक्ति हो, उसमें हत्या न करने की शक्ति का न होना अचम्भे की बात है। जिसमें दौड़ने की शक्ति हो उसमें खड़े रहने की शक्ति न हो इसे कौन मानेगा? जब हम कोई काम करने की इच्छा करते हैं, तो शक्ति आप ही आप आ जाती है। तुम यह निश्चय कर लो कि तुम्हें बयान बदलना है, बस! और सारी बातें आप ही आप आ जायेंगी।
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