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नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
छठा दृश्य
(पुलिस स्टेशन का वही पुराना कमरा। दारोगा साहब मेज के पास बैठे काम कर रहे हैं। एक सिपाही कुछ कागज ले जाता है। वह क्रोध से भरा हुआ है। दारोगा उसे देख कर उठता है।)
दारोगा—आइए रमा बाबू! तशरीफ़ रखिए। क्या बात है, आप कुछ परेशान नजर आते हैं? नौकरों ने कोई शरारत की है।
रमानाथ– (खड़े– खड़े) नौकरों ने नहीं, आपने शरारत की है।
दारोगा—(घबरा कर) मैंने! क्या बात है, कहिए तो?
रमानाथ– बात यही है कि मेरे ऊपर कोई इल्जाम नहीं है। आप लोगों ने मेरे साथ चाल चली। वारंट की धमकी दी। मैं अब इस मामले में कोई शहादत न दूँगा।
दारोगा—(पहले चौंकता है, फिर सँभल जाता है।) तो यह बात है।
रमानाथ– जी हाँ! मैं बेगुनाहों का खून अपनी गर्दन पर न लूँगा।
दारोगा—(तेज हो कर) लेकिन आपने खुद गबन तस्लीम किया है।
रमानाथ– वह गबन नहीं था, मीजान की गलती थी। मुझ पर कोई मुकदमा नहीं है।
दारोगा—यह आपको मालूम कैसे हुआ?
रमानाथ– इससे आपको कोई बहस नहीं। मैं शहादत न दूंगा। साफ़– साफ़ कह दूँगा कि पुलिस ने मुझे धोखा देकर शहादत दिलवायी है।
दारोगा—(हँस कर) अच्छा साहब, पुलिस ने धोखा ही दिया, लेकिन उसका खातिरख्वाह इनाम देने को भी तो हाजिर है। (मस्ती में) एक दिन राय बहादुर मुंशी रामनाथ, डिप्टी सुपरिन्टेंन्डेंट हो जाओगे। (हँसता है) आपको हमारा एहसान मानना चाहिए, उल्टे आप खफा होते हैं।
रमानाथ– मुझे क्लर्क बनना मंजूर है, मैं इस तरह की तरक्की नहीं चाहता!
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