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नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
(डिप्टी साहब और इन्सपेक्टर का प्रवेश)
इन्स्पेक्टर– अच्छा, हमारे बाबू साहब तो पहले से तैयार बैठे हैं। बस इसी कारगुजारी पर वारा– न्यारा है।
रमानाथ– जी हाँ, आज वारा– न्यारा कर दूँगा। इतने दिनों तक आप लोगों के इशारे पर चला। अब अपनी आँखों से देख कर चलूँगा।
(यह सुन कर तीनों चकित से एक दूसरे को देखते हैं।)
इन्स्पेक्टर– क्या बात है? हलक से कहता हूँ, आप कुछ नाराज मालूम होते हैं।
रमानाथ– मैंने फैसला किया है कि आज बयान बदल दूँगा। मैं बेगुनाहों का खून नहीं कर सकता।
इन्स्पेक्टर– (दया भाव से) आप बेगुनाहों का खून नहीं कर रहे हैं, अपनी तकदीर की इमारत खड़ी कर रहे हैं। हलफ़ से कहता हूँ, ऐसे मौके बहुत कम आदमियों को मिलते हैं। आज क्या बात हुई जो आप इतने खफा हो गये?
रमानाथ– बात यही है कि मैं थोड़े से फायदे के लिए अपने ईमान का खून नहीं कर सकता।
(क्षणिक सन्नाटा रहता है जैसे सब कुछ सोच में पड़ जाते हैं। बाद में डिप्टी रुखेपन से बोला।)
डिप्टी– रमा बाबू! यह अच्छी बात न होगी।
रमानाथ– (गर्म हो कर) आपके लिए न होगी। मेरे लिए तो सबसे अच्छी यही बात है।
डिप्टी– नहीं, आपके वास्ते इससे बुरी बात नहीं। आपको वह गवाही देना होगा जो आपने दिया। अगर तुम कुछ गड़बड़ करेगा तो हम तुम्हारे साथ दोसरा बर्ताव करेगा। एक रिपोर्ट में तुम भी चला जायगा।
(कह कर आँख निकाल कर रमा को देखता है। एक बार तो वह सहम उठता है।)
रमानाथ– (तेज होकर) आप मुझे धमकी देते है। मुझसे जबरदस्ती शहादत दिलवायेंगे?
डिप्टी– (पैर पटक कर) हाँ, जबरदस्ती दिलायेगा।
रमानाथ– यह अच्छी दिल्लगी है।
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